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________________ ९८ ] प्राकृतपैंगलम् णिअलहि-< निकटे; 'हि' अधिकरण ए० व० का चिह्न | वीस - विषं छन्दोनिर्वाहार्थ 'इ' का दीर्घीकरण । कबहु -- कदापि । हो - भवति; तसु < तस्य । संस्कृत टीकाकारों ने इस पद्य की अंतिम पंक्ति का भिन्न अर्थ किया है । उनका अर्थ है : - (१) “शिव भक्तों को यश देनेवाले हैं, जो दैवस्वभाव है, उसका भंग नहीं होता ।" (२) दैवस्वभाव जिसे जैसा दिलाता है, उसका भंग नहीं होता । (१) यो यशो ददाति । भक्तेभ्य इति शेषः । यश्च दैवस्वभावः कदापि न भवति तस्य भंग: । (लक्ष्मीधर ) (२) यः यशः दापयति यश्च दैवस्वभावस्तस्य भंगः कदापि न भवति । ( वंशीधर ) (३) यद्यस्य दापयति दैवस्वभावः कदापि न भवति तस्य भंग: । (विश्वनाथ पंचानन) इनमें अंतिम व्याख्या विशेष ठीक जान पड़ती है । [ १. ११६ [ उक्त मात्रिक छन्दों की अनुक्रमणिका ] गाहू, गाहा, विगाहा, उग्गाहा, गाहिणी, सीहिणी, खंधा, दोहा, उक्कच्छा, रोला, गंधाण, चउपइआ, घत्ता, घत्ताणंद, छप्पाआ, पज्झडिआ, अडिल्ला, पाआउलअं, चउबोला, णउपअ, पउमावत्ती, कुंडलिआ, गअणंगड, दोअई, झुल्लणा, खंजपअ, सिक्खा, माला, चुलिआला, सोरट्ठा, हाकलि, महुआर, महारु, दंडअरु, दीपक्क, सिंहालोअ, पवंगा, लीलावइ, हरिगीआ, तिअभंगी, दुम्मिला, हीरो, जनहरणी, मअणहरा, मरहट्ठा पचतालीस धरा । इति मत्तावित्त परिच्छेओ । ( इति मात्रावृत्तपरिच्छेदः) Jain Education International 1⭑1 For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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