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________________ ९४] प्राकृतपैंगलम् [१.२०२ [अथ जलहरणच्छन्दः] पअ पढम पलइ जहिँ सुणहि कमलमुहि दह वसु पुणु वसु विरह करे, सब पअ मुणि दिअगण दिअ विरम सगण सिरिफणिवइ भण सुकइवरे । दह तिगुण करहि कल पुण वि धरि जुअल एम परि परिठउ चउचरणा, जइ पलइ कवहु गुरु कवहु ण परिहरु बुहअण मणहरु जलहरणा ॥२०२॥ २०२. जलहरण छंद : हे कमलमुखि, सुनो, जहाँ प्रत्येक चरण में पहले दस, फिर आठ, फिर छ: (और अंत में फिर आठ) पर विराम किया जाय, सब चरणों में सात (मुनि) विप्रगण (चतुर्लघ्वात्मक चतुष्कल गण) देकर फिर सगण पर विराम (चरण का अंत) हो,-ऐसा सुकविश्रेष्ठ श्रीफणिपति पिंगल कहते हैं-दस के तिगुने करो, इनमें फिर दो धर कर इस प्रकार चारों चरणों में मात्रा स्थापित करो (जहाँ प्रत्येक चरण में १०४३+२=३२ मात्रा हों); यदि कहीं कोई गुरु (सगण वाले गुरु के अतिरिक्त अन्यत्र भी कोई गुरु) पड़े, तो उसे कभी न छोड़ो; [अर्थात् मुनि विप्रगण (सात सर्वलघु चतुष्कलों) का विधान कर देने पर उनमें भी यदि कहीं एक गुरु आ जाय तो बुरा नहीं है, इससे छंद दुष्ट नहीं होगा]; वह विद्वानों के मन को हरनेवाला जलहरण (छंद होगा)। टिo-जहिँ-यस्मिन् (यत्र) । सुणहि, करहि-आज्ञा म० पु० ए० व० 'हि' चिह्न । परिठउ, परिहरु-आज्ञा० म० पु० ए० व० 'उ चिह्न' । दिअ-< दत्वा; धरि < धृत्वा > धरिअ > धरि; पूर्वकालिक क्रिया । कवहु-< कदा । बत्तीस होइ मत्ता अंते सगणाइँ ठावेहि । सव्व लहू जइ गुरुआ, एक्को वा बे वि पाएहि ॥२०३॥ [ गाहू ] २०३. (जलहरण छंद के प्रत्येक चरण में) बत्तीस मात्रा होती हैं, चरणों के अंत में सगणों को स्थापित करो । अन्य सभी अक्षर लघु हों अथवा यदि एक या दो गुरु भी चरणों में हों (तो भी कोई दोष नहीं)। टि-सगणाई-< सगणान्; कर्म कारक ब० व०; अपभ्रंश में पुल्लिंग शब्द के कर्म कारक ब० व० के रूप कहीं कहीं नपुंसक लिंग के कर्ता कर्म ब० व० चिह्न आइँ (अ) का प्रयोग करते देखे जाते हैं। पुल्लिंग शब्द ही नहीं, वे स्त्रीलिंग शब्द भी जो अप० में अकारांत हो गये हैं इस प्रवृत्ति का संकेत करते हैं। प्रा० पैं० में ही हम 'मत्ताइँ रिहाई जैसे स्त्रीलिंग शब्दों के कर्मकारक ब० व० के रूप देखते हैं । इस बात का संकेत हेमचंद्र ने भी किया है । दे० पिशेल 8 ३५८ (पिशेल ने इसे लिंगव्यत्यय के उदाहरणों में दिया है) । अप० से इसके उदाहरण कुंभाइँ (=कुंभान्) । (हेम० ८.४.३४५); डालई (स्त्रीलिंग) (हेम० ८.४.४४५) दिए जा सकते हैं । __पाएहि-< पादे, अधिकरण कारक ए० व० (एक टीकाकार ने इसे 'पादेषु' मानकर ब० व० का रूप माना है।) अप० में 'हि' अधिकरण ए० व० ब० व० दोनों में समान रूप से व्यवहृत होता है। जहा, खर खर खदि खदि महि घघर रव कलड णणणगिदि करि तरअ चले, टटटगिदि पलइ टपु धसइ धरणि धर चकमक कर बहु दिसि चमले । २०२. पअ-A. किअ । पढम पलइ जहिँ-B. पअठइ कलहि, N. पअ ठइ कल सहि । सुणहि-A. मुणहि०, B विकचकमलमुहि, N. विअचकमलमुहि । सब... सगण-C. सब किअ दिअवर गण पअल किअ सगण । मुणि-0. दिअ । भण-0. भणइ । धस्-ि 0. ठवि । परिठऊ-परिठवि । चउचरणा-N. चतुचरणा । पलइ-N. परइ । मणहरु-N. मणुहरु । जलहरणा-B. जणहरण, N. जणहरणा । २०३. सगणाई-K. सगणाइ, N, सगणाई,0. सगणा । ठावेहि-ठावेहु । लहू-A. B. लहु । जइ-A. जहु । पाएहिCपाएहिं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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