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१. १८४]
मात्रावृत्तम्
विप्प सगण पअ बे वि गण अंत विसज्जहि हार । पच्छा हेरि कइत करु सोलह कल पत्थर ॥ १८४ ॥ [अथ दीपकच्छंद: ]
१८४. प्रत्येक चरण में सर्वलघु चतुष्कल (विप्रगण ) तथा अंतगुरु चतुष्कल (सगण ) - ये दो ही तरह के गण हों - तथा अंत में गुरु (हार) की रचना करो। फिर सोलह मात्रा के प्रस्तार को ढूँढ़ कर कविता करो । टिप्पणी-विसज्जहि ८ विसर्जय, आज्ञा म० पु० ए० व० ।
[ ८७
हेरि (निरीक्ष्य) - 'ढूँढ कर' पूर्वकालिक क्रिया रूप । यह देशी धातु है । इस धातु का प्रयोग राजस्थानी में आज भी पाया जाता है; पू० राज० 'हेरबो' (ढूंढ़ना) ।
जहा,
हणु उज्जर गुज्जर राअबलं, दल दलिअ चलिअ मरहट्ठबलं ।
बल मोलिअ मालवराअकुला, कुल उज्जल कलचुलि कण्ण फुला ॥१८५॥ [ सिंहावलोक]
१८५. उदाहरण
जिसने उज्ज्वल (यशस्वी) गुर्जरराज की सेना को मार दिया, मरहठों की सेना को अपनी सेना से दल दिया और भगा दिया, तथा मालवराज के कुल को बल से उखाड़ फेंका, वह उज्ज्वल कुलवाला कलचुरि प्रकाशित हो रहा है । टिप्पणी-हणु-- हतं, कर्मवाच्य भूतकालिक कृदन्त रूप ।
दल दलिअ - दलेन दलितं ।
बल मोलिअ - बलेन मोटितं ( मर्दितं ) ।
कुल उज्जल - इसकी व्याख्या या तो (१) कुलेन उज्ज्वलः हो सकती है, या (२) उज्ज्वलकुलः । टीकाकारों ने प्रायः द्वितीय व्याख्या की है तथा इसे बहुव्रीहि समास माना है । प्राकृत अप० में समास में पूर्वनिपात के नियम की पाबंदी नहीं की जाती । इसी को प्राकृत वैयाकरणों ने 'समासे पूर्वनिपातानियमः' के द्वारा संकेतित किया है ।
फुला - स्फुरति वस्तुतः यह शुद्ध धातु रूप / फुल शब्द है, जिसका प्रयोग यहाँ वर्तमानकालिक प्र० पु० ए० व० के लिए किया गया है । इसी को छन्दोनिर्वाहार्थ 'फुला' बना दिया गया है ।
[अथ प्लवंगमच्छन्दः ]
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जत्थ पढम छ मत्त पअप्पअ दिज्जए, पंचमत्त चउमत्त गणा हि किज्जए । संभल अंत लहू गुरु ऐक्कक चाहए, मुद्धि पअंगम छंद विअक्खण सोहए ॥१८६॥
१८६. उदाहरण
जहाँ प्रत्येक चरण में पहले छः मात्रा (षट्कल) दी जायँ, पंचमात्र या चतुर्मात्र गण नहीं किया जाय, तथा पद
के अन्त में सँभलकर (स्मरण करके) एक लघु तथा गुरु चाहें; हे मुग्धे, यह प्लवंगम छन्द चतुर सहृदयों को मोहित करता है । टिप्पणी- दिज्जए - (दीयते) किज्जए (क्रियते), कर्मवाच्य क्रिया के रूप । वैसे ये आत्मनेपदी रूप हैं, किन्तु प्रा० पैं० की अवहट्ट में आत्मनेपदी रूपों की उपलब्धि एक समस्या है। आत्मनेपदी रूप केवल दो तीन स्थानों पर ही मिलते हैं, तथा इनका प्रयोग छन्दोनिर्वाहार्थ हुआ है। इनका प्रयोग वहीं पाया जाता है, जहाँ पद के अन्त में 15 की आवश्यकता है । अन्तिम ध्वनि को गुरु बनाने के लिए तथा संस्कृत की नकल करने के लिए इन आत्मनेपदी रूपों का प्रयोग हुआ जान पड़ता है। ठीक यही बात इसी के 'चाहए', 'सोहए' के विषय में भी कही जा सकती है ।
१८४. C. प्रतौ न प्राप्यते । करु-B. करि । कल - B. करु । १८५. उज्जर - B. उज्जल । गुज्जर - B. गुज्जल। राअबलं -0. राउदलं । बलं - B. कुलं । दल-C. दर । चलिअ - C. वलिअ । मरहट्ठ- मरहठ्ठ । बल-C. बला, O. बले । मोलिअ - B. मोडिअ। 'मालव – O. माल । उज्जल - B. तज्जल । कलचुलि - C. कणचुरि । फुला - A. फुरा । १८६. पअप्पअ - C. पअंपअ । दिज्जएB. NO. दीसए । णहि B. अहि । किज्जए - A. दिज्जिए। संभलि - C. सव्व । एहू- B. C. लहु A. लह। गुरु- B. गुरु । एक्कक - B. N. एक्क, C. छइ रेहए । विअक्खण-C. विअख्खण । सोहए - N. मोहए ।
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