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________________ ८६] प्राकृतपैंगलम् [१.१८१ करु-< कृत्वा । माआ-< मायां (दयां) 'दया' के अर्थ में 'माआ' का प्रयोग महत्त्वपूर्ण है। इसका 'मया' रूप परवर्ती हिन्दी में द्रष्टव्य है। थप्पि-< स्थापयित्वा, पूर्वकालिक रूप । धरे-< धृताः; खड़ी बोली हि० में ब० व० में आकारांत शब्दों का 'ए' होता है-'धरा'-धरे; इसका बीज यहाँ देखा जा सकता है। सिर देह चउ मत्त, लहु एक्क कर अंत । कुंतक्क तसु मज्झ, दीपक्क सो बुज्झ ॥१८१॥ १८१. दीपक छंदः सिर पर (आरंभ में) चार मात्रा दो, चरण के अंत में एक लघु करो। उनके बीच में एक कुंत (पंचमात्रिक गण) की रचना करो । इसे दीपक समझो । टिप्पणी-देह, कर, बुज्झ, आज्ञा म० पु० ए० व० । कुंतक्थ-कुंत+एक्क। जहा, जसु हत्थ करवाल विप्पक्खकुलकाल । सिर सोह वर छत्त संपुण्णससिमत्त ॥१८२॥ [दीपक] १८२. उदाहरण: जिस (राजा) के हाथ में खड्ग (सुशोभित) है, जो विपक्ष के कुल का काल है; और जिसके सिर पर पूर्ण चंद्रमा के समान श्रेष्ठ छत्र शोभित हो रहा है। टिप्पणी-विप्पक्ख<विपक्ष, छंदोनिर्वाह के लिए 'प' का द्वित्व । सोह-शोभते, वर्तमानकालिक क्रिया प्र० पु० ए० व० । "ससिमत्त < "शशिमत् । 'मत्त' अर्धतत्सम रूप है, जिस पर संस्कृत 'मत्' का प्रभाव है, इसी 'मत्' के 'त' को द्वित्व बनाकर 'मत्त' बना है। [अथ सिंहावलोकच्छंदः] गण विप्प सगण धरि पअह पअं, भण सिंहअलोअण छंद वरं । गुणि गण मण बुज्झहु णाअ भणा, णहि जगणु ण भगणु ण कण्ण गणा ॥१८३॥ १८३. सिंहावलोक छंदः चरण चरण में विप्रगण (चतुष्कल सर्वलघु) तथा सगण धर कर (सोलह मात्रा की स्थापना कर) इसे श्रेष्ठ सिंहावलोक छंद कहो । गणों को समझ कर (गिनकर) (अथवा हे गुणी जनो, तुम) मन में समझ लो । नाग (पिंगल) कहते हैं कि इस छंद के चरण में जगण, भगण या कर्ण (द्विगुरु चतुष्कल) कभी न हों । टिप्पणी-पअह पअं< पदे पदे । 'ह' मूलत: संबंध का चिह्न है, जो अवहट्ठ में अन्यत्र भी मिलता है । 'पअं' को प्रातिपदिक 'पअ' का रूप मानना होगा, जिसे छंदोनिर्वाहार्थ सानुस्वार बना दिया है। बुज्झहु - बुध्यध्वम्, अनुज्ञा म० पु० ब० व० । १८१. देह-N. देहू । कस्-A. करु । कुंतक्क-C. कुंतक्क । मज्झ-C. अंत । सो-A.O. सोइ, B. सउ । बुज्झ-C. वुज्झ । १८१-C. १७७ । १८२. करवाल-B. करवालु । विप्पक्खकुल -A. N. विप्पक्खं, B. विपक्ख', C. विप्पसंकुल', K. बीपक्ख । सोह-C. सेअ । ससिमत्त-B. N. °वत्त-0. 'सेत्त । १८२ C. १७८ । १८३. विप्प सगण-B. विप्प गण । पअह पअं-N. मत्तक। भण-B. भणु । सिंहअलोअण-A.C. K. सिंहअलोअण, N. सिंघवलोअणु । B. सिंहअलोवह । छंद वरंN. छंदु धुआं । णहि-A. जसुण, C. ण । कण्ण-A. कण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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