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________________ १.१७५] मात्रावृत्तम् [८३ दिया गया है। [अथ मधुभारच्छंद] ___ जसु पलइ सक्ख पअहरह एक्क । चउमत्त बे वि महुभार एवि ॥१७५॥ १७५. मधुभार छंद: जिस छंद में (प्रत्येक चरण में) दो चतुर्मात्रिक पड़ें तथा अंत (शेष) में अर्थात् अंतिम चतुर्मात्रिक गण जगण (पयोधर) हो, यह मधुभार छंद है। __ कुछ टीकाकारों ने 'बे वि' के स्थान पर 'तेअ' पाठ मानकर यह अर्थ किया है-'जहाँ प्रत्येक दल (अर्धाली) के अंत में पयोधर (जगण) पड़े तथा इसके पहले तीन चतुर्मात्रिक गण हों, वह मधुभार छंद है।' इस मत के अनुसार केवल दलद्वयांत में ही जगण का अस्तित्व विहित है, चारों चरणों के अंत में नहीं । लक्षण तथा उदाहरण दोनों को देखने पर पता चलता है कि यहाँ लक्षण का निबंधन चार चरणों को ध्यान में रखकर किया गया है, दलद्वय को ध्यान में रखकर नहीं । इस बात की पुष्टि दशावधान भट्टाचार्य तथा विश्वनाथ पंचानन की टीका से होती है, यद्यपि वंशीधर तथा लक्ष्मीनाथ भट्ट दूसरे मत से सहमत हैं। वाणीभूषण नामक संस्कृत ग्रन्थ में भी इसका लक्षण चार चरण मानकर ही निबद्ध किया गया है। वैसे वाणीभूषण के ग्रन्थकार ने मधुभार छंद के प्रत्येक चरण में प्रथम चतुर्मात्रिक के भी गण का नियम बना दिया है कि वह 'सगण' हो, इस प्रकार उसके मत से वहाँ पहले सगण फिर जगण होना चाहिए । सगणं निधाय, जगणं विधाय । श्रुति सौख्यधाम, मधुभार नाम ॥ (लक्ष्मीनाथ भट्ट की टीका में उद्धृत; काव्यमाला संस्करण पृ. ८२) सक्ख<शेषे । यह तद्भव रूप न होकर अर्धतत्सम रूप है। संस्कृत 'ष' का उच्चारण 'ख' पाया जाता है। इस तरह 'शेष' का उच्चारण 'सेख' होगा । यही 'सेख' छन्दोनिर्वाहार्थ द्वित्व करने पर 'सक्ख' बनेगा, जिसके अधिकरण ए० व० में प्रातिपदिक रूप का प्रयोग पाया जाता है। इसका तद्भव रूप 'सेस' होगा । पअहरह पयोधरः । एवि < एतत् । जहा, जसु चंद सीस पिंधणह दीस । सो संभु एउ तुह सुब्भ देउ ॥१७६॥ [मधुभार] १७६. उदाहरण:जिनके सिर पर चंद्रमा है, तथा जिनके वस्त्र दिशायें हैं, वह शंभु तुम्हें कल्याण प्रदान करें। टिप्पणी-सीस<शीर्षे । पिंधणह < पिधानं । पिंधण' शब्द अर्धतत्सम है, क्योंकि तद्भव रूप होने पर मध्यम 'ध' का 'ह' होना आवश्यक था, इस तरह तद्भव रूप "*पिहाण" होता । यहाँ 'पि' के ऊपर जो अनुस्वार पाया जाता है, वह संभवतः 'न' का प्रभाव है। साथ ही इसमें 'धा' के 'आ' का ह्रस्वीकरण भी पाया जाता है। संभवत: इसीके कारण मात्रिक भार को कायम रखने के लिए अनुस्वार का प्रयोग हुआ हो । दीस < दिशा दिसा >अप० दिस । 'दि' के 'इ' का दीर्धीकरण छन्दोनिर्वाहार्थ पाया जाता है। अप० में इसका 'दिस' रूप मिलता है। दे० पिशेल : मातेरियाल्येन ३२ ।। तुहरतुभ्यं-मध्यम पुरुष सर्वनाम शब्द का सम्प्रदान-संबंध कारक ए० व० का रूप । १७५. पलइ-B. पलई । सक्ख-A.C. सेख । पअहरह-M. पअहर, A. पअहरअ, B. पओहर । बे वि-B. तीअ, N. तेअ। १७६. पिंघणह-B. पिंघण । एउ-N. एस । सुब्भ-C. सुक्खु, K. सुभ्भ । 0. सुक्ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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