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________________ ८४] प्राकृतपैंगलम् [१.१७७ [अथ आभीरच्छंदः] गारह मत्त करीज अंत पओहर दीज। एहु सुछंद अहीर जंपइ पिंगल वीर ॥१७७॥ १७७. आभीर छंद : प्रत्येक चरण में ग्यारह मात्रा की जायँ, अंत में पयोधर (जगण) दिया जाय, यह आभीर छंद है, ऐसा धैर्यशाली पिंगल कहते हैं। टिप्पणी-ग्यारह < एकादश > एक्कारस-*एक्कारह > एग्गारह (गलं १-७७, ७८) > इगारह (प्रा० पैं. 'इग्गारह' छन्दोनिर्वाहार्थ) > गारह । करीज, दीज-मूल रूप करीजे, दीजे, (क्रियते, दीयते) हैं। ये कर्मवाच्य के रूप हैं । करिज्जइ > करीजइ > करीजे-करीज, दिज्जइ > दीजइ > दीजे-दीज । जंपड़ < जल्पति । सं० 'जल्प' में 'ल' के स्थान पर 'म' का परिवर्तन प्राकृत में ही पाया जाता है । दे०'जल्पेर्लोमः । प्राकृतप्रकाश ८-२४ । जल्प व्यक्तायां वाचि अस्य धातोर्लकारस्य मकारो भवति । 'जम्पइ' । किंतु यह मत भाषावैज्ञानिक सरणि का संकेत नहीं करता । संभवतः 'जल्पइ' का पहले *जप्पइ रूप बना होगा, बाद में इसमें अनुस्वार आया होगा । अतः हम इस क्रम की कल्पना कर सकते हैं :-'जल्पइ' > *जप्पइ > जम्पइ । जहा, सुंदरि गुज्जरि णारि लोअण दीह विसारि । पीण पओहरभार लोलइ मोत्तिअहार ॥१७८॥ (अहीर) १७८. उदाहरण (यह) सुन्दरी गुर्जरी नारी (है) (इसके) नेत्र दीर्घ एवं विस्तृत (लंबे लंबे) (है), (इसके) पुष्ट पयोधर भार पर मोती का हार हिल रहा है । टिप्पणी-'भार-< 'भारे, अधिकरण ए० व० । लोलड़-< लोलते, वर्तमान प्र० पु० ए० व०; मोत्तिअहस-< मौक्तिकहारः । [अथ दण्डकच्छंदः] कुंतअरु धणुद्धरु हअवरु छक्कलु बि बि पाइक्क दले, बत्तीसह मत्तह पअ सुपसिद्धउ जाणह बुहअण हिअअतले । सउबीस अठग्गल कल संपुण्णउ रूअउ फणि भासिअ भुअणे, दंडअल णिरुत्तउ गुरु संजुत्तउ पिंगल अं जंपंत मणे ॥१७९॥ १७९. दण्डकल छंद: जिस छन्द के प्रत्येक चरण में पहले कुंतधर, धनुर्धर, हयवर तथा गजवर (चारों चतुर्मात्रिक गण के नाम हैं) अर्थात् चार चतुर्मात्रिक गण हों, फिर एक षट्कल गण हो तथा दो पदाति (चतुर्मात्रिक गण) हों, जिनके अन्त में एक गुरु हो, तथा चरण में बत्तीस मात्रा हो, (वह प्रसिद्ध छन्द दंडकल हैं), हे बुधजनो, तुम इसे हृदयतल में जानों; इसके सम्पूर्ण रूप में आठ अधिक एक सौ बीस (अर्थात् एक सौ अट्ठाइस) मात्रा होती है, ऐसा फणिराज पिंगल ने संसार में कहा है। यह छंद दंडकल कहलाता है, ऐसा पिंगलशास्त्र के वेत्ता (अथवा पिंगल आचार्य) मन में कहते हैं। १७७. गारह-0. रुद्दह । एहु-B. एह । सुछंद-A. सुछंदु । अहीर-A. अहिर । १७८. गुज्जस्-िB. गुज्जर । लोलइ-B. लोलिअ, C.O. लूलइ । १७९. पाइक्क-N. पाएक्क । पअ सुपसिद्ध-N. पअसु पसिद्धह । हिअअतले-0. हिअअरए । अठग्गल-B. अट्ठग्गल, N. सउवीहट्टग्गल । संपुण्णउ रूअ-N. संपुणउ रूप । अं-N. णाअ । जंपंत-N. जपतं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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