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________________ ८२] प्राकृतपैंगलम् [१.१७२ भूतकालिक कृदंत का रूप है (मतः) । Vमाण+इअ (कर्मवाच्य भूत० कृदंत) माणिअ । पुहविः पृथिव्यां; पृथिवी-पुहवी> पुहवि (अप०), अधिकरण कारक ए० व० में प्रातिपदिक का प्रयोग । [अथ हाकलि छंदः] सगणा भगणा दिअगणई, मत्त चउद्दह पअ पलई । संठड् वंको विरह तहा हाकलि रूअउ एहु कहा ॥१७२॥ १७२. हाकलि छंद : जहाँ प्रत्येक चरण में क्रमशः सगण (15), भगण () तथा द्विजगण (IN), ये गण हों, तथा प्रत्येक चरण में १४ मात्रा पड़े, तथा अंत में एक गुरु स्थापित कर तब विराम हो, यह हाकलि (छंद) का स्वरूप कहा गया है। टिप्पणी-पलई < पतति-(=पलइ के 'ई' को छंद के लिये दीर्घ कर दिया है)। संठड़ < संस्थाप्य, पूर्वकालिक क्रिया । कहा-टीकाकारों ने इसे 'कह' (<कथय) का छन्दोनिर्वाहार्थ दीर्घ रूप समझा जान पड़ता है। क्या यह कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत का रूप नहीं माना जा सकता? (तु०-हि. 'कहा', 'उसने यह कहा') । मत्त चउद्दह पढम दल एआरह वण्णेहि ।। दुह अक्खर उत्तर दलहि हाकलि छंद कहेहि ॥१७३॥ [दोहा] १७३. जहाँ प्रथम दल में ग्यारह वर्गों के साथ चौदह मात्रा हों, उत्तर दल में दस अक्षर हों, उसे हाकलि छंद कहो। टि०-वण्णेहि-< वर्णैः, करण कारक ब० व० रूप । दलहि-< दले; अधिकरण कारक ए० व० । कहेहि-< कथय; अनुज्ञा म० पु० ए० व० । चउद्दह-< चतुर्दश । जहा, - उच्चउ छाअण विमल धरा तरुणी घरिणी विणअपरा । वित्तक पूरल मुद्दहरा वरिसा समआ सुक्खकरा ॥१७४॥ [हाकलि] १७४. उदाहरण: ऊँचे छाजन वाला विमल घर, विनयशील युवती पत्नी, धन से भरा हुआ मुद्रागृह (भाण्डार, कोशागार) तथा वर्षा समय सुखकर होते हैं। टि०-वित्तक-'क' संबंध कारक का परसर्ग है जिसकी व्याख्या भाषाशास्त्रीय शैली में 'वित्तस्य पूर्ण मुद्रागृहं' होगी । 'क' परसर्ग के लिए दे० भूमिका । पूरल-कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत 'ल', जो केवल भोजपुरी तथा मैथिली मे पाया जाता है। इसके लिए दे० 'मुअल' की टिप्पणी (१-१६०) । वरिसा-< वर्षा; 'इ' का आगम, । मुद्दहरा-< मुद्रागृह > *मुद्दाघर > *मुद्दाहर > मुद्दहर; इसी 'मुद्दहर' के पदांत 'अ' को छन्दोनिर्वाहार्थ दीर्घ बना १७२. रुअ-A. B. N. रुअह । एहु-C. K. एम । १७३. C. प्रतौ न प्राप्यते । दल-B. पअहि । पढम दल-0. पअ पअ । एआरह-N. एग्गारह वण्णेहि-N. वण्णोहि । छंद-A.छंदु । १७४. छाअण-B. N. छावणि, C. छावण, 0. छाएण । विमल0. निविड । घरिणी-B. घरुणी । विणअपरा-N. विणिअ । वित्तक-वित्तकं । मुद्दहरा-C. मुदहरा, N. मुंदहरा, B. मूलघरा । वरिसा-C. वरिखा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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