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१.१६८ ]
दिज्जड़ - < दीयते, कर्मवाच्य ।
दोहा संखा संठहु उप्परि पंचइ मत्त ।
अप्पर बीस दुइ चुलिआला उक्खित्त ॥१६८॥
१६८. दोहे की संख्या स्थापित करो, ऊपर से पाँच मात्रा (प्रत्येक दल में) दो। इस प्रकार चुलिआला में सब
कुल अठारह पर दो बीस (१८ + २x२० = ५८) मात्रा होती है ।
दोहे की प्रत्येक अर्धाली में १३+११ = २४ मात्रा होती हैं, समग्र छन्द में ४८ मात्रा, चुलिआला की प्रत्येक अर्धाली में २४+५ = २९ मात्रा होती है, समग्र छंद में २९x२=५८ मात्रा ।
जहा,
मात्रावृत्तम्
१६९. उदाहरण :
राजा लोभी, समाज मूर्ख, पत्नी कलहकारिणी तथा सेवक धूर्त हों, तो यदि तुम सुखमय जीवन चाहते हो, तो बहुत गुणयुक्त घर होने पर भी उसे छोड़ दो ।
टिप्पणी-चाहसि < इच्छसि Vचाह + सि वर्तमान म० पु० ए० व० ।
परिहरु परिहर - अनुज्ञा म० पु० ए० व० ।
[ अथ सोरट्ठा छंदः ]
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आलुद्ध समाज खल बहु कलहारिणि सेवक धुत्त ।
जीवण चाहसि मुक्ख जड़ परिहरु घर जइ बहुगुणजुत्तउ ॥ १६९॥ [चुलिआला]
जहा,
सो सोरउ जाण, जं दोहा विपरीअ ठिअ ।
पअ पअ जमक वखाण, णाअराअ पिंगल कहिअ ॥ १७० ॥
१७०. सोरठा छंद :
जहाँ दोहा विपरीत (उलटा ) स्थित हो, तथा प्रत्येक चरण में यमक (तुक) हो, उसे सोरठा छंद समझो, ऐसा नागराज पिंगल कहते हैं ।
( दोहा :- १३ : ११, १३ : ११ । सोरठा : ११ : १३, ११ : १३ मात्रा) ।
टिप्पणी- सो सोरट्ठउ < तत् सौराष्ट्रं । ये दोनों कर्म कारक ए० व० में है, तथा 'जाण' के कर्म है । जाण< जानीहि । विपरीअ < विपरीतं । ठिअ स्थितं ।
जमक<यमकं - यह अर्धतत्सम रूप है, तद्भव रूप 'जमअ' होगा ।
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वखाण व्याख्याहि-अनुज्ञा म० पु० ए० व० ।
णाअराअ पिंगल नागराजेन पिंगलेन; करण (कर्मवाच्य कर्ता) ए० व० ।
कहिअ<कथितं; कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत ।
सोमाणि पुणवंत, जासु भत्त पंडिअ तणअ ।
जासु घरिणि गुणवंत, सो वि पुहवि सग्गह णिलअ ॥ १७१ ॥ [ सोरठा ]
१७१. उदाहरण :- वही पुण्यवान् समझा जाता है, जिसका पुत्र ( पितृ - ) भक्त तथा विद्वान् हो, जिसकी पत्नी गुणवती हो, वह पृथ्वी में भी स्वर्ग में निवास करने वाला है ।
टिप्पणी- माणिअ - इसको कुछ टीकाकारों ने 'मन्यते' अन्य ने 'मान्यः' का रूप माना है; मेरी समझ में यह कर्मवाच्य १६८. संखा - A.. लक्षण । अट्ठदहुप्परि - C. ° दहपरि, N. अट्ठदहुप्पइ । १६९. लुद्ध - B. लुध्ध । कलहारिणी - C. करिआरिणि । सेवक - O. सेइक । जीवण - N. जीअण। जड़ - C. जउ । परिहर - A. B. N. परिहरु । जइ - C. जइँ, O जण । १७०. सोर N. सोरठ्ठउ | जं-C. जह। विपरीअ - A. विररी, N. बिबरीअ । ठिअ - N. ढिअ । जमक - O. जमअ । कहिअ - A. N. कहइ । १७१. पुणवंत - A. पुणमंत, C. पुणअन्त । तणअ - N. तनअ । धरिणि - A. B. घरणि । गुणवंति - B. गुणमंत, O. गुणमंति । सो - A. B. से ।
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