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प्राचीन अर्धमागधी की खोज में/के.आर चन्द्र
शौरसेनी प्राकृत की नहीं है । यह तो मागधी की और पूर्वी भारत की प्रवृत्ति है । जो शब्द उधर दिये गये हैं वे प्रायः अर्धमागधी से ही अन्य प्राकृतों में प्रचलित होने की अधिक संभावना है ।
7 सूत्र नं. 8.1.27 की वृत्ति में मणोसिला (मनःशिला) और अइमुत्तयं (अतिमुक्तकम् ) आर्ष के लिए दिये गये हैं जबकि प्राकृत के लिए मणसिला और अइमुंतय दिये गये हैं । संयुक्त के समीकरण के बदले - उनमें से एक व्यंजन का अनुस्वार में बदलने की प्रवृत्ति बाद की मानी जाती है (मणस्सिला ---- मणसिला)।
8. सूत्र नं. 8.2.17 में क्ष = च्छ समझाया गया है । वृत्ति में कहा गया है आर्षे इक्खू , खीरं, सारिक्खमित्याद्यपि दृश्यन्ते । अर्थात् क्ष का क्ख भी होता है । अशोक के शिलालेखों में यह पूर्वी क्षेत्र की प्रवृत्ति है । अन्य क्षेत्रों में च्छ मिलता है । बादमें क्ष का सभी जगह च्छ और क्ख एक साथ मिलता है (मेहेण्डले, पृ. 217 )।
9. सूत्र नं. 81.57 की वृत्ति मे 'आर्षे पुरेकम्म' का उदाहरण दिया गया है । यह अस् = ए यानि पुरः = पुरे है । इसी तरह ही. अः = ए की प्रवृत्ति पूर्वी भारत की रही है । अशोक के शिलालेखों में प्रथमा ए. व. के अलावा षष्ठी एवं पंचमी ए. व. के व्यंजनांत शब्दों में अकारान्त के बाद अन्त में विसर्ग आता है वहाँ पर -ए भी मिलता है । इसिभासियाई में नामते (नामतः) प्रयोग मिलता है (अध्याय 22 और 31) । ___10. अकारान्त पुं. प्र. ए. व. की -ए विभक्ति (सूत्र 8.4 287 की वृत्ति के अनुसार) अर्धमागधी भाषा की प्रमुख लाक्षणिकता है जो. ' पूर्वी भारत की भाषाकीय विशेषता रही है ।
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