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________________ आचार्य श्री हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण की अर्धमागधी भाषा ७३. में अर्धमागधी के प्रभाव से अनेक ऐसे शब्द जैन महाराष्ट्री और जैन शौरसेनी साहित्य में भी प्रचलित हो गये । मेहेण्डले' (पृ. 271) के अनुसार घोषीकरण की यह प्रवृत्ति पूर्व से अन्य क्षेत्रों में फैली है । पिशल के अनुसार भी अर्धमागधी में मध्यवर्ती 'क' का बहुधा 'ग' मिलता हैं । वास्तव में इसका उल्लेख आर्ष की विशेषता के रूप मे होना चाहिए था । 4. सूत्र नं, 8.2.138 में उभय शब्द के लिए अवह और उवह दिये गये हैं और वृत्ति में कहा गया है || आर्षे उभयोकालं ॥ अर्थात् महाप्राण भ का ह में परिवर्तन इस शब्द में नहीं है । प्राचीनतम प्राकृत भाषा में भ का ह में परिवर्तन प्रायः होता हो ऐसा - नहीं है । शुक्रिंग महोदय, शापेण्टियर और आल्सडर्फ द्वारा संपादित प्राचीन आगम ग्रन्थों में यह लाक्षणिकता मिलती है । 5. मध्यवर्ती न = न या ण 8.1.228 सूत्र के अनुसार मध्यवर्ती न का ण होता है परंतु फिर वृत्ति में कहा गया है कि - आर्षे आरनाल, अनिलो इत्याद्यपि । मध्यवर्ती न कोण में बदलने की प्रवृत्ति अशोक के शिलालेखों के अनुसार दक्षिण भारत की और ई. स. के बाद अन्य क्षेत्रों में पश्चात् कालीन है और यह पूर्वी भारत की प्रवृत्ति थी ही नहीं । 6. सूत्र नं. 8.1.254 में रकार के लकार में बदलने वाले लगभग 25 उदाहरण वृत्ति में दिये गये हैं । अन्त में कहा गया है। आ दुवासङ्गे इत्याद्यपि । अशोक के शिलालेखों में दुवाडस और दुवाळस ( द्वादश) शब्द मिलते हैं । बाद में ड और ळ कार ल में बदल जाता है । र के ल में बदलने की प्रवृत्ति महाराष्ट्री या 8. Ibid. p. 271 9. Comparative Grammar of the Prakrit Languages, R. Pischel, para. 202. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001435
Book TitlePrachin Ardhamagadhi ki Khoj me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages136
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Grammar
File Size6 MB
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