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प्राचीन अर्धमागधी की खोज में/ के आर. चन्द्रः
जाणिन्तु (आचारांग), चइत्तु (उत्तराध्ययन), पविसितु, पमज्जित्तु (दश कालिक) वंदित्तु ( कल्पसूत्र), सुणित्तु, भुञ्जिन्तु (दशवैकालिक) इत्यादि ।
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ये सब उदाहरण अर्धमागधी के प्राचीन ग्रन्थों में मिलते हैं जो पिशल ने प्रस्तुत किये हैं ।
यही प्रत्यय अशोक के शिलालेखों में मिलता है । अतः उस समय में प्रचलित प्रत्यय ही उस काल की रचनाओं में आ सकता है और यदि यह प्रचलित नहीं होता तो अर्धमागधी में कैसे आ
सकता ।
उदाहरण :
जाणितु (धौली पृथक् ), सुतु (कालसी, टोपरा),
श्रुतु ( शाह, मान. ) 11
आए, व. कृ. मान मीन और
ऊपर दी गयी पाँचों भाषाकीय विशेषताएँ – प्रारंभिक य = अ, . मति = मुति, च. ए. व. की विभक्ति सं. भू. कृ. का प्रत्यय न्त अशोक के शिलालेखों में पायी. जाती हैं । इससे पहले के उत्कीर्ण प्रमाण हमारे पास नहीं हैं अतः ये भाषाकीय विशेषताएँ अशोक से भी कितनी प्राचीन होगी यह नहीं : कहा जा सकता परन्तु इतना निश्चित है कि इन विशेषताओं का अर्धमागधी आगम-ग्रन्थों में मिलना यही साबित करता है कि अमुक आगम-ग्रन्थों की रचना कम से कम अशोक के काल तक पुरानी तो है ही ।
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1. शिलालेखों में किसी व्यंजन के द्वित्व के स्थान पर एक ही व्यंजन लिखने की पद्धति पायी जाती है, जैसे - तु
~=
तु
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