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________________ अर्धमागधी आगम-ग्रन्थों की प्राचीनता और उनकी रचना का स्थल भिभिसमीण (नायाधम्मकहाओ)। व्यवहारसूत्र में भी ऐसे प्रयोग काफी मात्रा में मिलते हैं । पूज्य पुण्यविजयजी द्वारा आचा. चूर्णी (पृ. 41.7) का संशोधित पाठ भी इसी प्रकार का मिलता हैआरंभमीणा विणयं वदंति (सूत्र-62)। प्रश्न यह है कि-मान के बदले में -मीन प्रत्यय आया कहाँ से और यह कौन से काल में प्रचलित था । इसका उत्तर हमें अशोक के शिलालेखां से मिलता है, उदाहरण :. संपटिपजमीन, विपटिपादयमीन (पृथक् धौली लेख) पलकममीन (सहसराम लघु शिलालेख), पायमीन (स्तंभलेख), पकममीन (सिद्दापुर, रूपनाथ, बैराट लघुशिलालेख, येरागुडी शिलालेख), पकममीण (ब्रह्मगिरि लघुशिलालेख) । प्रो. मेहेण्डले (562) के अनुसार अशोक के पश्चात् यह-मीन प्रत्यय नहीं मिलता है । इससे यह सिद्ध होता है कि इस प्रत्यय के प्रयोगवाले अर्धमागधी साहित्य के अंश निश्चित ही अशोक के समय तक तो प्राचीन है ही । च. संबंधक भूतकृदन्त का प्रत्यय - तु (-इत्त) . गाइगर महादय के अनुसार पालि भाषा में सं. भू. कृ. के जो जो प्रत्यय (अल्पमात्रा में या अधिक मात्रा में) मिलते हैं वे इस प्रकार हैं —त्वा, त्वान, तून, च्च, य, य्य, इय और यान (208-214)। . ये सभी (-य्य के सिवाय) प्रत्यय (ध्वनि-परिवर्तन के साथ) अर्धमागधी भाषा में भी मिलते हैं परंतु एक और प्रत्यय मिलता है और वह है -त्तु (-इत्तु) जो पालि में नहीं मिलता है (पिशल-577), उदाहरण : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001435
Book TitlePrachin Ardhamagadhi ki Khoj me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages136
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Grammar
File Size6 MB
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