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४६.
प्राचीन अर्धमागधी की खोज में/के.आर.चन्द्र प्रत्ययांवाले प्रयोग बच पाये हैं वे इस प्रकार दर्शाये जा सकते हैं । ( देखिए पिशल 462 ) :(1) -ए प्रत्यय
गिज्झे (गृध्येत्), हरिसे (हेषेत् ), कुझे (क्रुध्येत् ), कण्डूयए । (कण्ड्य येत् ), किणे (कृणेत् ), चरे (चरेत) ( आचारांग)। लभे ( लभेत् ), .चिठे (तिष्ठेत् ), उवचिठे (उपतिष्ठेत् ) (उत्तराध्ययन) । अच्छे ( आछिन्द्यात् ) अब्भे ( आभिन्द्यात् ) (आचारांग, पिशल - 466) ।
ऐसे ही प्राचीन प्रयोग सुत्तनिपात (पालि) में भी मिलते हैं :तिट्ठे 54.14, गच्छे 54 14, अभिनन्दे 54.18; सिक्खे 52.19, इच्छे 47.1, इत्यादि । (2) -या प्रत्यय ( देखो पिशल 462, 464, 465 ) ।
सिया ( स्यात् ), असिया ( अस्यात् ), बूया (यात् ) हणिया । हन्यात् ), सक्का ( शक्यात् ), चक्किया ( *चक्यात् ) लब्भा ( *लभ्यात् ), इत्यादि । पमज्जिया ( प्रमार्जयेत् ) आचा. 19.1. 273 और सिया
( इसिभा. 39.3 ) । (3) -एय प्रत्यय
___ वत्तेय ( वर्तेत ) इसिभा. 24.11 [इस प्राचीन प्रत्यय के विषय में पिशल ( 459 ) महोदय का यह कहना है कि ऐसा कोई पुराना प्रत्यय प्रचलित नहीं था । परंतु इसिभा, में इसकी एकल दोकल उपलब्धि यह सिद्ध करती है कि एसे प्रयोग प्राचीन काल की प्रतों में रहे होंगे परंतु परवर्ती काल में भाषा की प्राचीनता के ज्ञान के अभाव में लेहियों के हाथ ऐसे प्रयोग निकल गये होंगे ।
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