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अर्धमागधी में प्राचीन भाषाकीय तत्त्व
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(दः संबंधक भूतकृदन्त के प्राचीन रूप 41) संबंधक भूतकृदन्त के लिए मूल धातु में प्राकृत का प्रत्यय
जोड़े बिना संस्कृत कृदन्तों ( मात्र ध्वनि-परिवर्तन ) से बने हुए प्राचीन रूप इस प्रकार दर्शाये जा सकते हैं :अभिकंख ( अभिकांक्ष्य ), निक्खम्म (निष्क्रम्य ), पक्खिप्प
। प्रक्षिप्य ), पविस्स ( प्रविश्य ) उवलब्भ (उपलभ्य', परिच्चज्ज (परित्यज्य), (देखिए-पिशल) ।
परवर्ती प्राकृत में इस कृदन्त के रूप-इअ प्रत्यय के साथ मिलते हैं और प्राचीन रूपों का प्रचलन बन्द हो जाता है, जैसे : - लंभिअ, पविसिअ, परिच्चइअ, इत्यादि ।
ऊपर जैसे प्राचीन प्रयोग ‘सुत्तनिपात' में भी मिलते हैं :
आरम्भ-54 18, परक्कम्म-54.12; इत्यादि । गाइगर महोदय के अनुसार कुछ और रूप :-आपुच्छ, निक्खम्म, परिच्चज्ज इत्यादि । अर्धमामधी के इन प्राचीन रूपों में कुछ और रूप जोड़े जा सकते हैं :'पप्प (प्राप्य ) आचा. 1.2.3.79, इसिभा. अ. 31 और 45, किचा ( कृत्वा ), इसिभा. 31, जित्ता ( जित्वा ) इसिभा. 29, इत्यादि । इनके परवर्ती काल के रूप -पाविय, पाविऊण, जिणिय, जिणिऊण, करिअ, करेत्ता, इत्यादि मिलेंगे। (2) -त्ताणं,-च्चा,-च्चाणं,-याण और -याणं सं. भू. कृ. के प्राचीन प्रत्यय माने गये हैं जो आचा., सूत्रकृ., उत्तरा., दशवै., आदि सूत्रों में मिलते हैं ( देखिए-पिशल, 583, 587 और 592)। इसिभासियाई से कुछ उदाहरग :
( किच्चा 35.1, 39.2, 41.1 ', आणच्चा ( आज्ञाय ) 11, पृ. 23.20, णिराकिच्चा 11.5, णच्चा 11, पृ. 23.20; 30.8.
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