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________________ अर्धमागधी में प्राचीन भाषाकीय तत्त्व (2) व्यंजनांत शब्दों के रूप (षष्ठी ए. व. ) :― धीमता ( धीमतः ) इसिभा 995, धीइमओ, महओ ( महतः ) भगवओ ( भगवतः ); (पिशल - 396 ), जसस्सिणो (पिशल - 405 ) । (ड) सप्तमी एकवचन की प्राचीन विभक्ति - हिं और म्हि (1) 'हिं' और 'म्हि' विभक्तियों का विकास 'स्मिन् विभक्ति में से हुआ है । अशोक के शिलालेखों में 'हि' विभक्ति पच्छिम के शिलालेखों में मिलती है । 'हि' में से ही बाद में 'म्मि' विभक्ति का विकास हुआ है । पालि भाषा में सप्तमी एकवचन की विभक्तियाँ 'स्मि' और 'म्हि' हैं जिन्हें यहाँ पर ध्यान में रखना चाहिए । अर्धमागधी के ग्रंथों में प्राचीन विभक्ति 'सिंह' और 'हिं' के बचे हुए प्रयोग : इमम्हि ( व्यवहार सूत्र 7. 22,23), कहिं (उत्तराध्ययन (152. आल्सडर्फ ) 1 ४१ ( 2 ) सप्तमी एकवचन की प्राचीन विभक्ति 'स्सिं ' अर्धमागधी में स. ए. व. की प्रचलित विभक्ति असि है, जैसेलोगंसि, नयसि, अग्गिंसि, वाउंसि, परंतु 'स्सिं' विभक्ति शायद ही मिलती है । वैसे -स्सिं ही - असि का पूर्व रूप है और 'स्सिं' का शिलालेखों में इसी - 'स्सिं ' विकास 'स्मिन्' में से हुआ है । अशोक के के लेखन का स्वरूप - 'सिं' मिलता है । प्राकृत व्याकरणकारों ने सर्वनाम के लिए - 'स्सिं' विभक्ति का आदेश दिया है, परंतु नाम - रूपों 1. Kleine Schriften, ( 1974 AD ), p. 232. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001435
Book TitlePrachin Ardhamagadhi ki Khoj me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages136
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Grammar
File Size6 MB
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