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________________ प्राचीन अर्धमागधी की खोज में / के. आर चन्द्र के लिए इसका उल्लेख नहीं है । यह विभक्ति नाम-रूपों के प्राचीन प्रयोगों में रही होगी परंतु बाद में 'असि' विभक्ति ही सर्वत्र प्रचलित हो गयी । - 'स्सिं' वाले प्राचीन प्रयोग शायद ही कहीं पर बच पाये हैं । उसका एक उदाहरण आचारांग की एक हस्तप्रत में मिलता है जिसे मुद्रित ग्रंथ में पाठान्तर के रूप में रखा गया है (लोगस्सिं, आचा. 1.1.19 पाठान्तर, म. जे. वि.) । इस - स्सिं विभक्ति के प्रयोग साहित्य से अदृश्य हो गये हैं ऐसा लगता है क्योंकि व्याकरणकारों ने भी नाम रूपों के लिए 'रिस' विभक्ति का उल्लेख नहीं किया है । # ४२ (३) रात्रि का स. ए. व. का रूप राओ (रात्रौ ) रात्री का प्रचलित स. ए. व. का रूप 'रत्तीए' है परंतु 'रातो' और 'राओ ( रात्रौ ) बचे हुये प्राचीन रूप भी मिलते हैं 2 : दिया य रातो य ( आचा. सूत्र, 189.190 म. जैत्रि . ) अहो य राओ य ( आचा, सूत्र, 63, 73 ) इसके अलावा और मी देखिए सूत्र नं. 133. 282, 291, इत्यादि । पिशल महोदय ने (386) सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, इत्यादि से ऐसे उदाहरण दिये हैं । (ढ) कुछ और प्राचीन रूप (i) वेदवी ( वेदवित्) प्र. ए. व. ( आचा. सूत्र. 145,163 174, 196, कालवेयत्री (इसिभा . 22.12 ) में 1. पू. हेमचन्द्र के व्याकरण 'अंसि' विभक्ति का उल्लेख ही नहीं है (8.3.11; 8.3.59 ) । इसके अलावा और भी कितने ही अर्धमागधी भाषा के प्राचीन प्रयोगों का उल्लेख नहीं है । पं. बेचरदासजी दोशी का यह मन्तव्य सर्वथा उचित लगता है कि पू. हेमचन्द्र का प्राकृत व्याकरण अर्धमागधी के सभी प्रयोगों को नहीं समझा सकता है क्योंकि उन्होंने आगमों के सभी प्रयोगों पर दृष्टिपात नहीं किया था । देखिए : प्राकृत मार्गोपदेशिका, पृ. 31, चौथी आवृत्ति, 1947 A.D. 2. सूत्रकृतांग (1.1.1.8) में एक प्राचीन रूप 'ते भो' (तेभ्यः, पं.ब.ब.) बच गया है Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001435
Book TitlePrachin Ardhamagadhi ki Khoj me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages136
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Grammar
File Size6 MB
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