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प्राचीन अर्धमागधी की खोज में / के. आर चन्द्र
( 3 ) शुक्रिंग महोदय
आचारांग के लिए ऐसा नियम बना कर चले कि जहाँ पर भी शब्द में मध्यवर्ती त मिलता है वह त श्रुति है अतः उसे निकाल दिया गया परंतु इसि भासियाई के लिए ऐसा नियम नहीं अपनाया गया । आचारांग में अन्य मध्यवर्ती व्यंजनों का लोप तकार की तरह नहीं किया गया है, द = त भी मिलता है । यह अघोष बनाने की प्रक्रिया लोप से पहले की स्थिति है । इसिमासियाई में द त रखा गया है (यदि = जति 3.2) परंतु आचारांग में ऐसे पाठ ( प्रतियों में उपलब्ध होते हुए भी) नहीं अपनाये गये हैं ।
कभी कभी तो
इससे ऐसा प्रतीत होता है कि आचारांग के सम्पादन के समय व्याकरणकारों द्वारा परवर्ती प्राकृत भाषा के दिये गये लक्षणों का प्रभाव उन पर रहा है जबकि इसिमासियाई के सम्पादन के समय उन नियमों का पालन नहीं करके उन्होंने सही स्थिति का अनुकरण किया है जो प्राचीनतालक्षी है ।
(4) अन्य सम्पादकों ने भी मध्यवर्ती त का लोप अपनाया है । उदाहरण इस प्रकार हैं:
उत्तराध्ययन
૨૪
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-!
(शार्पे. संस्करण)
(अ) जाई 13.18 हरइ 13.26
नाभिसमेइ 13.30
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( प्रतों में पाठान्तर )
जाती,
हरति
नाभिसमेति
(ब) संभूय 13.11
संभूत'
1. आल्सडर्फ महोदय ने यहाँ पर 'संभूत' पाठ अपनाया है ।
देखिए Kleine Schriften, p. 190
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