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________________ प्रस्तावना वालब्भसंघकज्जे उज्जमियं जुगपहाणतुल्लेहि । गंधव्ववाइवेयालसंतिसूरीहि वलहीए ॥ इस प्रकार का प्राचीन उल्लेख भी पाया जाता है. इस गाथा में 'वलभी में वालभ्यसंघ के कार्य के लिए गन्धर्व वादिवेताल शांतिसूरि ने प्रयत्न किया था ऐसा जो उल्लेख है वह वालभ्यसंघकार्य वालभी-वाचना को लक्ष्य करके ही अधिक संभावित है. अन्यथा 'वालभसंघकज्जे ऐसा उल्लेख न होकर 'संघकज्जे' इतना ही उल्लेख काफी होता. इस उल्लेख से प्रतीत होता है कि श्री देवधिगणि क्षमाश्रमण को माथुरी-वाचनामों को व्यवस्थापित करने में इनका प्रमुख साहाय्य रहा होगा. दिगंबराचार्य देवसेनकृत दर्शनसारनामक ग्रन्य में श्वेताम्बरों की उत्पत्ति के वर्णनप्रसंग में-- छत्तीसे वरिससए विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स सोरठे उप्पण्णो सेवडसंघो हु वलहीए ॥४२॥ एक्क पुण संतिणामो संपत्तो बलहीणामणायरीए। बहुसीससंपउत्तो विसए सोरट्ठए रम्मे ॥४६॥ इस प्रकार का उल्लेख है. यद्यपि इस उल्लेख में दिया हुआ संवत् मिलता नहीं है तथापि उपर्युक्त 'वालब्भसंघकज्जे' गाथा में निर्दिष्ट वालभ्यसंघकार्य, शांतिसूरि, वलभी आदि उल्लेख के साथ तुलना करने के लिए दर्शनसार का यह उल्लेख जरूर उपयुक्त है. देवधिगणि जो स्वयं माथुर संघ के युग प्रधान थे, उनकी अध्यक्षता में वलभीनगर में एकत्रित संघसमवाय में दोनों वाचनाओं के श्रुतधर स्थविरादि विद्यमान थे, इस संघसमवाय में सर्वसम्मति से माथुरी वाचना को प्रमुख स्थान दिया गया होगा, इसका कारण यह हो सकता है कि माथुरी-वाचना के जैनागमों की व्यवस्थितता एवं परिमाणाधिकता थी. इसमें ज्योतिष्करंडक जैसे ग्रन्थों को भी स्थान दिया गया जो केवल वालभी-वाचना में ही थे. इतना ही नहीं अपितु माथुरी-वाचना से भिन्न एवं अतिरिक्त जो सूत्रपाठ एवं व्याख्यान्तर थे उन सबका उल्लेख नागार्जुन.चार्य के नाम से तत्तत् स्थान पर किया भी गया. याचारांग आदि की चूणियों में ऐसे उल्लेख पाए जाते हैं. समझ में नहीं पाता कि जिस समय जैन आगमों को पुस्तकारूढ किया गया होगा उस समय इन वाचनाभेदों का संग्रह किस ढंग से किया गया होगा? जैनागम की कोई ऐसी हस्तप्रति मौजूद नहीं है जिसमें इन वाचना भेदों का संग्रह या उल्लेख हो. आज हमारे सामने इस वाचनाभेद को जानने का साधन प्राचीन चूणिग्रन्थों के अलावा अन्य एक भी ग्रन्थ नहीं है. चूणियाँ भी सब आगमों की नहीं किन्तु केवल आवश्यक, नन्दी, अनुयोगद्वार, दशवकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग, सूत्रकृतांग, भगवती, जीवाभिगम, जम्बू द्वीपप्रज्ञप्ति, निशीथ, कल्प, पंचकल्प व्यवहार एवं दशाश्रुतस्कन्ध की ही मिलती हैं. ऊपर जिन आगमों की चूणियों के नाम दिए गए हैं उनमें से नागार्जुनीय-वाचनाभेद का उल्लेख केवल आचारांग, सूत्रकृतांग उत्तराध्ययन व दशवैकालिक की चूर्णियों में ही मिलता है. अन्य आगमों में नागार्जुनीय वाचना की अपेक्षा न्यूनाधिक्य या व्याख्याभेद क्या था, इसका आज कोई पता नहीं लगता. बहुत संभव है, ये वाचनाभेद चूर्णि-वृत्ति आदि व्याख्यानों के निर्माण के बाद में सिर्फ पाठभेद के रूप में परिणत हो गए हों. यही कारण है कि चूर्णिकार और वृत्तिकारों की व्याख्या में पाठों का कभी-कभी बहुत अन्तर दिखाई देता है."-पृ० ७२१-७२३ । "पाचाराङ्गसूत्र की चूणि में नागार्जुनीय वाचना का उल्लेख पंद्रह जगह पाया जाता है चूणि पृ० वृत्तिपत्र चूणि पृ० वृत्तिपत्र १ भदन्त नागार्जुनीयास्तु पढंति ११८ ९ भदन्तणागज्जुणा तु २१९ २४५ २ णागज्जुणिया पढंति १० णागज्जुणिया उ २१९ ३ भदंत णागज्जुणिया तु पढंति ११३ ११ णागज्जुणा २५३ ४ भदंत णागज्जुणिया १२० १६६ १२ णागज्जुणा तु २३७ ५ भदंतणागज्जुणिया पढंति १३९ १८३ १३ णागज्जुणा २८७ ६ एत्थ सक्खी भदन्तनागार्जुनाः १९८ १४ णागज्जुणा तु पढंति ३०३ ७ नागार्जुनीयास्तु २०१ १५ भदन्तनागार्जुनीया तु ८ णागज्जुणीया २०७२३९ यहाँ पर आचारांगचूणि और शीलांकाचार्यरचित वृत्ति के जो पृष्ठ-पत्रांक आदि दिये गये हैं वे पागमोद्धारक पूज्य आचार्य श्री सागरानन्दसूरि सम्पादित आवृत्ति के हैं । उपर्युक्त पंद्रह उल्लेखों में से पांच उल्लेख शीलांकीय वृत्ति में नहीं हैं। बाकी के दस उल्लेख शीलांकाचार्य ने दिये हैं । वे सभी उल्लेख पाचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की चूर्णि-वृत्ति में ही हैं। द्वितीय श्रुतस्कन्ध की चूणि-वृत्ति में २३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001423
Book TitleAcharangasutram Sutrakrutangsutram Cha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagaranandsuri, Anandsagarsuri, Jambuvijay
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1978
Total Pages764
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, agam_acharang, & agam_sutrakritang
File Size26 MB
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