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________________ प्रस्तावना माथुर-नागार्जुनीयवाचनयोर्मध्ये यः पाठभेदः संजातस्तस्य कतिपया उल्लेखा पाचाराङ्गचूणि-सूत्रकृताङ्गचूणि-शीलाचार्यविरचितवृत्ति-उत्तराध्ययनचूणि-दशवकालिकचूणिषु दृश्यन्ते । प्राचाराङ्गचूाँ पञ्चदशकृत्व:, शीलाचार्यविरचितायामाचाराङ्गवृत्तौ दशकृत्वः, सूत्रकृताङ्गचूणौं त्रयोदशकृत्वः, शीलाचार्यविरचितसूत्रकृताङ्गवृत्तौ तु चतुर्दा स्थानेषु चाचाराङ्ग-सूत्रकृताङ्गसंबन्धिनां नागार्जुनीयवाचनागतानां पाठभेदानां नामग्राहमुल्लेखो दृश्यते । भगवतो महावीरस्य निर्वाणात् ९८० वर्षे वलभ्यां देवधिगणिक्षमाश्रमणप्रमुखसंघेनागमग्रन्थाः पुस्तकेषु लिखिताः । देवधिगणिक्षमाश्रमणाः माथुरसंघस्य प्राचार्याः । पुस्तकलेखनसमये माथुरी वाचना तैः प्रामुख्येनानुसृता इति साम्प्रतकालीनाः संशोधका विद्वांसः संभावयन्ति । तदभिप्रायेण सम्प्रति वर्तमाना प्राचाराङ्ग-सूत्रकृताङ्गादीनां बहूनामागमग्रन्थानां पाठपरंपरा माथुरी वाचनामनुसरति । मुनिराजश्रीपुण्यविजयजीमहाभागैः 'जैन आगमधर और 'प्राकृत वाङमय' इत्यस्मिन् निबन्धे माथुर-वालभीवाचनादिविषये हिन्दीभाषायां यच्चचितं तदप्यत्र उपयोगित्वादक्षरश उद्धि यते-- "स्कन्दिलाचार्य व नागार्जुनाचार्य (वीर नि. ८२७ से ८४०)-ये स्थविर क्रमश: माथुरी या स्कान्दिली और वालभी या नागार्जुनी वाचना के प्रवर्तक थे. दोनों ही समकालीन स्थविर प्राचार्य थे. इनके युग में भयंकर दुभिक्ष उपस्थित होने के कारण जैन श्रमणों को इधर-उधर विप्रकीर्ण छोटे-छोटे समूहों में रहना पड़ा. श्रुतधर स्थविरों की विप्रकृष्टता एवं भिक्षा की दुर्लभता के कारण जैनश्रमणों का अध्ययन-स्वाध्यायादि भी कम हो गया. अनेक श्रुतधर स्थविरों का इस दुर्भिक्ष में देहावसान हो जाने के कारण जैनागमों का बहुत अंश नष्ट-भ्रष्ट, छिन्न-भिन्न एवं अस्त-व्यस्त हो गया, दुभिक्ष के अंत में ये दोनों स्थविर, जो कि मुख्य रूप से श्रुतधर थे, बच रहे थे किन्तु एक-दूसरे से बहुत दूर थे. आर्य स्कन्दिल मथुरा के आसपास थे और आर्य नागार्जुन सौराष्ट्र में. दुर्भिक्ष के अन्त में इन दोनों स्थविरों ने वी. सं. ८२७ से ८४० के बीच किसी वर्ष में क्रमशः मथुरा व वलभी में संघसमवाय एकत्र करके जैन आगमों को जिस रूप में याद था उस रूप में ग्रन्थरूप से लिख लिया. दोनों स्थविर वृद्ध होने के कारण परस्पर मिल न सके. इसका परिणाम यह हुआ कि दोनों के शिष्यप्रशिष्यादि अपनी-अपनी परम्परा के आगमों को अपनाते रहे और उनका अध्ययन करते रहे. यह स्थिति लगभग डेढ सौ वर्ष तक रही. इस समय तक कोई ऐसा प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति नहीं हुआ जो आगमों के इस पाठभेद का समन्वय कर पाता. इसी कारण आगमों का व्यवस्थित लेखन आदि भी नहीं हो सका. जो कुछ भी हो आज जो जैनागम विद्यमान हैं वे इन दोनों स्थविरों की देन है.... देवधिगणि व गन्धर्व वादिवेताल शान्तिसूरि (वीर नि. ९९३)--देवधिगणि क्षमाश्रमण माथुरी वाचनानुयायी प्रतिभासम्पन्न समर्थ प्राचार्य थे. इन्हीं की अध्यक्षता में वलभी में माथुरी एवं नागार्जुनी वाचनाओं के वाचनाभेदों का समन्वय करके जैनागम व्यवस्थित किये गये और लिखे भी गये. गन्धर्व वादिवेताल शान्तिसूरि वालभी वाचनानुयायी मान्य स्थविर थे. इनके विषय में-- १. दृश्यतां श्रीमहावीरजैनविद्यालयप्रकाशिते आचाराङ्गसूत्रे प० २१ टि० १,८, पृ० ३३ टि० १०, पृ० ३५ टि० १३, पृ०४० टि० १२, पृ० ४६ टि० १,पृ० ४७ टि० २,पृ.० ६० टि० १,१०६३ टि०११,१०६४ टि० ९, पृ०६६ टि० १०, पृ० ६७ टि०६, पृ०६८ टि० १८, पृ० ८४ टि० ५, पृ० ९० टि० १०, पृ० ९४ टि० १० ।। २. दृश्यतामस्मिन् ग्रन्थे प्राचाराङ्ग वृत्तौ पृ० 79,111, 122,132, 134, 159, 163, 171, 202।। ३. दृश्यतां श्रीमहावीरजैनविद्यालयप्रकाशिते सूत्रकृताङ्गसूत्रे पृ० ११ टि० १२, पृ० १६ टि० ७, पृ० २१ टि० १९, पृ० २२ टि०८.पृ० १९१ टि०८,पृ० १९४ टि० ७, पृ० १९५ ट०४,प.० २१२ टि० ४९, १० २४० टि० १७, २३, पृ० २४५ टि० १५, पृ० ५४२ टि० १६ ॥ ४. दृश्यतामस्मिन् ग्रन्थे सूत्रकृताङ्गवृत्तौ पु. 43, 43, 233, 243 ।। ५. "श्रीदेवद्धिगणिक्षमाश्रमणेन श्रीवीरादशीत्यधिकनवशतवर्षे (९८०) जातेन द्वादशवर्षीयदुभिक्षवशाद् बहुतरसाधुव्यापत्तौ बहुश्रुतविच्छित्तौ च जातायां । भविष्यद्भव्यलोकोपकाराय श्रुतभक्तये च श्रीसङ्घाग्रहाद् मृतावशिष्टतदाकालीनसर्वसाधून वलभ्यामाकार्य तन्मुखाद् विच्छिन्नावशिष्टान् न्यूनाधिकान् त्रुटितानुत्रुटितानागमालपकाननुक्रमेण स्वमत्या संकलय्य पुस्तकारूढाः कृताः"--इति सामाचारीशतके उपाध्यायसमयसुन्दररचिते । “तथोक्त'--बल्लहिपुरम्मि णयरे देवढिपमुहसयलसंधेहिं । पुत्ये आगमलिहियो नवसयअसियानो वीरानो ।"--कल्पसूत्रसुबोधिका पृ० १२६ । । "जिनवचनं च दुष्षमाकालवशादुच्छिन्नप्रायमिति मत्वा भगवद्भिर्नागार्जुन-स्कन्दिलाचार्यप्रभृतिभिः पुस्तकेषु न्यस्तम् ।"--योगशास्त्रवृत्ति,पृ० २०७ । एतदनुसारेण नागार्जुनाचार्याणां समयेऽपि पुस्तकलेखनमभूदिति हेमचन्द्रसूरीणामभिप्रायः प्रतीयते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001423
Book TitleAcharangasutram Sutrakrutangsutram Cha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagaranandsuri, Anandsagarsuri, Jambuvijay
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1978
Total Pages764
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, agam_acharang, & agam_sutrakritang
File Size26 MB
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