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________________ ३१ नागार्जुनीय वाचना का कोई उल्लेख नहीं है । यहां प्राचारांग चूर्णि में से नागार्जुनीय वाचना के जो पंद्रह उल्लेख उद्धृत किये गये हैं उनमें सात जगह प्रतिपूज्यतासूचक 'भदन्त' विशेषण का प्रयोग किया है जो अन्य किसी चूर्णि वृत्ति आदि में नहीं है । इससे अनुमान होता है कि इस चूर्णि के प्रणेता, जिनके नाम का उल्लेख कहीं भी नहीं मिलता, कम से कम नागार्जुनीय परंपरा के प्रति प्रादर रखने वाले थे । प्रस्तावना सूत्रकृतांग की चूर्णि में नागार्जुनीय वाचना के जो उल्लेख मिलते हैं उन सभी स्थानों पर 'नागार्जुनीयास्तु' ऐसा लिखकर ही नागार्जुनीय वाचनाभेद का उल्लेख किया गया है जो प्रथम श्रुतस्कन्ध में चार जगह व दूसरे श्रुतस्कन्ध में नौ जगह पाया गया है । प्राचार्य शांक ने अपनी वृत्ति में 'नागार्जुनीयास्तु पठन्ति' लिखकर नागार्जुनीय बाचना का उल्लेख चार जगह किया है। संभव है पिछले जमाने में नागार्जुनीय वाचनाभेद का कोई खास महत्त्व रहा न होगा । उत्तराध्ययन सूत्र की भूमि में चूर्णिकार द्याचार्य ने पांच स्थानों पर नागार्जुनीय वाचनाभेद का उल्लेख किया है। पाइपटीकाकार यादिवेताल शान्तिमूरिजी ने भी इन पांचों स्थानों पर नागार्जुनीय वाचनाभेद का उल्लेख किया है, किन्तु सिर्फ एक स्थान पर नागार्जु नीय वाचना का नाम न लेकर पठ्यते च [ पत्र २६४-४] ऐसा लिखकर नागार्जुनीय वाचनाभेद का उल्लेख किया है। कुछ विद्वान् स्थविर प्रार्य देवधिराणि के श्रागम व्यवस्थापन व ग्रागम-लेखन को वालभी वाचनारूप से बतलाते हैं किंतु ऊपर वाली वाचना के विषय में जो कुछ कहा गया है उससे उसका यह कथन भ्रान्त सिद्ध होता है, वास्तव में वालभी वाचना वही है जो माथुरी वाचना के समय में स्थविर प्रार्य नागार्जुन ने वलभीनगर में संघसमवाय एकत्र कर जैन ग्रागमों का संकलन किया था । स्थविर आर्य देवद्धणि ने वलभी में संघसमवाय को एकत्रित कर जैन आगमों को व्यवस्थित किया व लिखवाया उस समय लेखन की प्रारंभिक प्रवृत्ति किस रूप में हुई इसका स्पष्ट उल्लेख कहीं भी नहीं मिलता। सामान्यतया मुखोपमुख कहा जाता है कि वलभी में हजारों की संख्या में ग्रंथ लिखे गए थे, किन्तु हमारे सामने शीलांकाचार्य, नवांगवृत्तिकार यभवदेवपूरि यदि व्यायाकार याचायों के जो विवादपूर्ण उल्लेख विद्यमान हैं उनसे तो यह माना नहीं जा सकता कि इतने प्रमाण में ग्रंथलेखन हुआ होगा । श्री शीलांकाचार्य ने सूत्रकृतांग की अपनी वृत्ति में इस प्रकार लिखा है : "इह च प्रायः सूत्रादर्शेषु नानाविधानि सूत्राणि दृश्यन्ते, न च टीकासंवादी एकोऽप्यादर्शः समुपलब्ध:, श्रत एकमादर्शमङ्गीकृत्यास्माभिविवरणं क्रियत इति एतदवगम्य मूत्रविसंवा ददर्शनाच्चित्तव्यामोहो न विधेय इति ।" (मुद्रित पत्र ३३६१) अर्थात् चूर्णिसंमत मूलसूत्र के साथ तुलना की जाय ऐसी एक भी मूलसूत्र की हस्तप्रति प्राचार्य शीलांक को नहीं मिली थी । श्री अभयदेवाचार्य ने भी स्थानांग, समवायांग व प्रश्नव्याकरण इन तीनों अंग श्रागमों की वृत्ति के प्रारम्भ एवं अंत में इसी आशय का उल्लेख किया है जो क्रमश: इस प्रकार है । १. वाचनानामनेकत्वात् पुस्तकानामशुद्धितः । सूत्राणामतिगांभीर्याद् मतभेदाच्च कुत्रचित् ॥ २ ॥ २. यस्य ग्रंथवरस्य वाक्यजलसं सहस्राणि च चत्वारिशदहो ! चतुभिरधिका मानं पदानामभूत् । तस्योच्चैश्वलाकृति विदधतः कालादिदोषात् तथा दुखात् खितां गतस्य कुधियः कुर्वन्तु कि मादृशाः ? ॥ २ ॥ ३. अशा वयं शास्त्रमिदं गंभीर प्रायोज्य कूटानि च पुस्तकानि सूतं व्यवस्थाप्यमतो विमृश्य, व्यायपान कल्पादित एवं नैव ॥ ५॥ ऊपर उदाहरण के रूप में श्री शीलांकाचार्य व श्री अभयदेवाचार्य के जो उल्लेख दिए हैं उनसे प्रतीत होता है कि वलभी में स्थविर आर्य देवद्विगणि, गंधर्ववादिवेताल शांतिसूरि आदि के प्रयत्न से जो जैन आगमों का संकलन एवं व्यवस्थापन हुआ और उन्हें पुस्तकारूढ किया गया, यह कार्य जैन स्थविर धमणों की जैनागमादि को संचारुद करने की अल्परुचि के कारण बहुत संक्षिप्त रूप में ही हुआ होगा तथा निकट भविष्य में हुए वलभी के भंग के साथ ही वह व्यवस्थित किया हुआ आगमों का लिखित छोटा-सा ग्रंथ संग्रह नष्ट हो गया होगा। परिणाम यह हुआ कि आखिर जो स्थविर आर्य स्कन्दिल एवं स्थविर आर्य नागार्जुन के समय की हस्तप्रतियां होंगी, उन्हीं की शरण व्याख्याकारों को लेनी पड़ी होगी । यही कारण है कि प्राचीन चूर्णियां एवं व्याख्याग्रंथों में सैकड़ों पाठभेद उल्लिखित प हैं जिनका उदाहरण के रूप में मैं यहाँ संक्षेप में उल्लेख करता हूं । आचारांगन की चूमि में चूर्णिकार ने नागार्जुनीय वाचना के उल्लेख के अलावा पहिज्ज य' ऐसा लिखकर उन्नीस स्थानों पर पाठभेद का उल्लेख किया है। आचार्य श्री शीलांक ने भी अपनी वृत्ति में उपलब्ध हस्तप्रतियों के अनुसार कितने ही सूत्रपाठभेद दिये हैं । इसी प्रकार सूत्रकृताँगचूर्णि में भी नागार्जुनीय वाचनाभेद के अलावा 'पठ्यते च पठ्यते चान्यथा सद्भिः, अथवा, अथवा इह तु, मूलपाठस्तु पाठविशेषस्तु, अन्यथा पाठस्तु श्रयमचरकल्पः पाठान्तरम्' आदि वाक्यों का उल्लेख कर केवल प्रथमभूतस्कन्ध की चूर्णि में ही लगभग सवासौ जगह जिन्हें वास्तविक पाठभेद माना जाय ऐसे उल्लेखों की गाथा की गाथाएं, पूर्वार्ध के पूर्वार्ध व चरण के चरण पाये जाते हैं। द्वितीय तस्कन्ध के पाठभेद तो इसमें शामिल ही नहीं किये गये हैं। प्राचार्य शीलांक ने भी बहुत से पाठभेद दिये हैं, फिर भी चूर्णिकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001423
Book TitleAcharangasutram Sutrakrutangsutram Cha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagaranandsuri, Anandsagarsuri, Jambuvijay
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1978
Total Pages764
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, agam_acharang, & agam_sutrakritang
File Size26 MB
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