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महावीर के सिद्धान्त : ७६
किया गया है। आप कहेंगे ---एक वस्तु में परस्पर विरोधी धर्मों का सम्भव कैसे हो सकता है ? इसे समझने के लिए एक उदाहरण लीजिए-एक सुनार के पास सोने का कंगन है। वह उसे तोड़ कर, गला कर हार बना लेता है। इससे यह स्पष्ट हो गया कि कंगन का नाश हो कर हार की उत्पत्ति हो गई। परन्तु इससे आप यह नहीं कह सकते कि एक वस्तु विल्कुल ही नष्ट हो गयी, और दूसरी बिल्कुल ही नयी पैदा हो गयी। क्योंकि कंगन और हार में, जो सोने के रूप में मूल तत्त्व है, वह तो ज्यों-का-त्यों अपनी उसी स्थिति में विद्यमान है। विनाश और उत्पत्ति केवल आकार की हुई है। पुराने आकार का का नाश हुआ है, और नये आकार की उत्पत्ति हुई है। इस उदाहरण से सोने में कंगन के आकार का नाश, हार के आकार की उत्पत्ति, सोने की स्थितिये तीनों धर्म भली-भाँति सिद्ध हो जाते हैं। ० इस प्रकार प्रत्येक वस्तु में उत्पत्ति, स्थिति और विनाश- ये तीनों गुण स्वभावतया रहते हैं। कोई भी वस्तु जव वाहर में नष्ट होती मालूम होती है, तो इससे यह न समझना चाहिए कि उसके मूल तत्त्व ही नष्ट हो गए। उत्पत्ति और विनाश तो उसके स्थल रूप के होते हैं। स्थल दृश्य रूप के नष्ट हो जाने पर भी उसके सूक्ष्म परमाणु तो सदा स्थित ही
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