________________
७४ : महावीर : सिद्धान्त और उपदेश
अन्धे हुए, अब व्यर्थ का झठ बोल कर क्यों उन पापों की जड़ों में पानी सींचते हो ! हाथी तो भाई, मैं भी देख कर आया हूँ। वह अनाज भरने की कोठी जैसा है।" अब क्या था, आपस में वाक् - युद्ध ठन गया । सब एक-दूसरे की भर्त्सना करने लगे। ० सौभाग्य से वहाँ एक आँखों वाला सत्पुरुष आ गया। उसे अन्धों की तू - तू, मैं - मैं सुन कर हँसी आ गई। पर, दूसरे ही क्षण उसका चेहरा गंभीर हो गया, उसने कहा- "बन्धुओं क्यों झगड़ते हो ? जरा मेरी बात भी सुनो। तुम सब सच्चे भी हो और झरे भी। तुम में से किसी ने भी हाथी को पूरा नहीं देखा है। एक - एक अवयव को लेकर हाथी की पूर्णता का दावा कर रहे हो। कोई किसी को झठा मत कहो, एक-दूसरे के दृष्टिकोण को समझने का प्रयत्न करो। हाथी रस्सा जैसा भी है, पूछ की दृष्टि से। हाथी मूसल जैसा भी है, सूड की अपेक्षा से । हाथी छाज जैसा भी है, कान की ओर से । हाथी काल जैसा भी है, दांतों के लिहाज से। हाथी खंभा जैसा भी है, पैरों की अपेक्षा से । हाथी अनाज की कोठी जैसा भी है, पेट के दृष्टिकोण से ।" इस प्रकार समझा - बुझा कर उस सज्जन ने विरोध की आग में समन्वय का पानी डाला। ० संसार में जितने भी एकान्तवादी सम्प्रदाय हैं, वे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org