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महावीर के सिद्धान्त : ७३
जन्म के अंधे छह मित्र रहते थे। सौभाग्य से वहाँ एक हाथी आ निकला । गाँव वालों ने कभी हाथी देखा नहीं, धूम मच गई। अंधोंने भी हाथी का आना सुना, तो देखने दौड़े । अंधे तो थे ही, देखते क्या ? हर एक ने हाथ से टटोलना शुरू किया। किसी ने पूछ पकड़ी, तो किसी ने सूड, किसी ने कान पकड़ा, तो किसी ने दाँत, किसी ने पैर पकड़ा, तो किसी ने पेट । एक - एक अंग को पकड़ कर हर एक ने समझ लिया कि मैंने हाथी देख लिया है। ० अपने स्थान पर आए तो हाथी के संबंध में चर्चा छिड़ी। पूछ पकड़ने वाले अंधे ने कहा- "हाथी तो मोटे रस्सा जैसा था।" सूड पकड़ने वाले ने कहा"झूठ, बिल्कुल झूठ ! हाथी कहीं रस्सा जैसा होता है। अरे हाथी तो मुसल जैसा था।" तीसरा कान पकड़ने वाला बोला-."आँखें काम नहीं देतीं, तो क्या हुआ ? हाथ तो धोखा नहीं दे सकते। मैंने हाथी को टटोल कर देखा था, वह ठीक छाज जैसा था। चौथे दाँत पकड़ने वाले सूरदास बोले- "तुम सब क्यों गप्पें मारते हो ? हाथी तो कुशा-कुदाल जैसा था !" पाँचवे पैर पकड़ने वाले महाशय ने कहा- कुछ भगवान् का भी भय रखो। नाहक क्यों झठ बोलते हो ? हाथी तो खंभा जैसा है।" छठे पेट पकड़ने वाले सूरदास गरज उठे-अरे क्यों बकवास करते हो ? पहले पाप किए तो
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