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महावीर के सिद्धान्त : ७१
एक अधेड़ व्यक्ति आया। उसने कहा 'भाई'। चौथी ओर से एक छात्र आया। उसने कहा- 'मास्टरजी।' मतलब यह है कि- उसी आदमी को कोई चाचा कहता है, कोई ताऊ कहता है, कोई मामा, कोई भानजा आदि - आदि । सब झगड़ते हैं- यह तो पिता ही है, पुत्र ही है, भाई ही है, मास्टर ही है, चाचा ही है आदि - आदि । अब बताइए, कैसे निर्णय हो ? उनका यह संघर्ष कैसे मिटे ? वास्तव में यह आदमी है क्या ? यहाँ पर स्याद्वाद को जज बनाना पड़ेगा। स्याद्वाद पहले लड़के से कहता है कि- हाँ, यह पिता भी है । तुम्हारे ही लिए तो पिता है, कि तुम इसके पुत्र हो, पर सब लोगों का तो पिता नहीं है। बूढ़े से कहता है-हो, यह पुत्र भी है। तुम्हारी अपनी अपेक्षा से ही यह पुत्र है, सब लोगों की अपेक्षा से तो नहीं। क्या सारी दुनिया का पुत्र है। मतलब यह है कि यह आदमी अपने पुत्र की अपेक्षा से पिता है, अपने पिता की अपेक्षा से पुत्र है, अपने भाई की अपेक्षा से भाई है, अपने विद्यार्थी की अपेक्षा से गुरु है। इसी प्रकार अपनी-अपनी अपेक्षा से चाचा, ताऊ, मामा, भानजा, पति, मित्र सब है। एक ही आदमी में अनेक धर्म हैं, परन्तु भिन्न - भिन्न अपेक्षा से । यह नहीं, कि उसी पुत्र की अपेक्षा से पिता, उसी पुत्र की अपेक्षा
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