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जीओ और जीने दो
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जैन तीर्थंकरों की तथाकथित अहिंसा का भाव आज की मान्यता के अनुसार निष्क्रियता का रूप भी नहीं था। वे अहिंसा का अर्थ - प्रेम, परोपकार, करुणा, दया, सेवा, सहानुभूति, मैत्री, सहयोग, सह - अस्तित्व भावना, विश्व बन्धुत्व आदि करते थे । जैन तीर्थंकरों का आदर्श यहीं तक सीमित न था"स्वयं आनन्द से जीओ और दूसरों को जीने दो ।" उनका आदर्श था - "दूसरों के जीने में मदद भी करो, और अवसर आने पर दूसरों के जीवन की रक्षा के लिए अपने जीवन की आहुति भी दे डालो यानी दूसरों को जिला कर जीओ ।" वे उस जीवन को कोई महत्त्व न देते थे, जो जन सेवा के मार्ग से सर्वथा दूर रह कर एकमात्र भक्तिवाद के अर्थ - शून्य क्रिया - काण्डों में ही उलझा रहता हो ।
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महावीर के सिद्धान्त : ६५
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भवगान् महावीर ने तो एक बार यहाँ तक कहा था - "मेरी सेवा करने की अपेक्षा दीन दुखियों की सेवा करना, कहीं अधिक श्रेयस्कर है । वे मेरे भक्त नहीं, जो सिर्फ मेरी भक्ति करते हैं, माला फेरते हैं ।" मेरी आज्ञा है - " प्राणिमात्र को यथोचित सुख, सुविधा और शान्ति पहुँचाना ।" भगवान् महावीर का यह
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