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महावीर के सिद्धान्त : ६३
जुराना, जैन - धर्म की दृष्टि से विरुद्ध नहीं है । परन्तु आवश्यकता से अधिक संग्रहीत एवं संगठित शक्ति अवश्य ही संहार - लीला का अभिनय करेगी, अहिंसा को मरणोन्मुखी बनाएगी। अत: आप आश्चर्य न करें कि पिछले कुछ वर्षों से जो निःशस्त्रीकरण आन्दोलन चल रहा है. प्रत्येक राष्ट्र को सीमित युद्ध - सामग्री रखने को कहा जा रहा है, वह जैन - तीर्थंकरों ने हजारों वर्ष पहले चलाया था। आज जो काम कानन द्वारा, पारस्परिक विधान के द्वारा लिया जाता है, तब वह उपदेशों द्वारा लिया जाता था। भगवान् महावीर ने बड़े - बड़े राजाओं को जैन - धर्म में दीक्षित किया था और उन्हें नियम दिया था कि वे राष्ट्र - रक्षा के काम में आने वाले शस्त्रों से अधिक शस्त्रों का संग्रह न करें। साधनों का आधिक्य मनुष्य को उद्दण्ड बना देता है। प्रभुता की लालसा में आ कर एक दिन वह कहीं-न-कहीं किसी पर चढ़ दौड़ेगा और मानव-संसार में युद्ध की आग भड़का देगा। इसी दष्टि से तीर्थंकर हिंसा के मूलकारणों को उखाड़ने का प्रयत्न करते रहे ।
० जैन - तीर्थंकरों ने कभी भी युद्धों का समर्थन नहीं किया। जहाँ अनेक धर्माचार्य साम्राज्यवादी राजाओं के हाथों की कठपुतली बन कर युद्ध के समर्थन में
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