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६२ : महावीर : सिद्धान्त और उपदेश प्रयत्न किए हैं। वे अपने प्रत्येक गहस्थ शिष्य को पाँचवें परिग्राह परिमाणवत की मर्यादा में सर्वदा । 'स्व' में ही सीमित रहने की शिक्षा देते हैं। व्यापार, उद्योग आदि क्षेत्रों में उन्होंने अपने अनुयायियों को अपने न्याय-प्राप्त अधिकारों से आगे कभी नहीं बढ़ने दिया। प्राप्त अधिकारों से आगे बढ़ने का अर्थ हैअपने दूसरे साथियों के साथ मर्यादाहीन घातक संघर्ष में उतरना।
० जैन - संस्कृति का अमर आदर्श है-प्रत्येक मनुष्य अपनी उचित आवश्यकता की पूर्ति के लिए ही, उचित साधनों का सहारा लेकर, उचित प्रयत्न करे । आवश्यकता से अधिक किसी भी सुख-सामग्री का संग्रह करके रखना, जैन - संस्कृति में चोरी है। व्यक्ति, समाज और राष्ट्र परस्पर क्यों लड़ते हैं ? इसी अनुचित संग्रह-वृत्ति के कारण । दूसरों के जीवन की, जीवन के सुख - साधनों की उपेक्षा करके मनुष्य कभी भी सुख शान्ति प्राप्त नहीं कर सकता । अहिंसा के बज अपरिग्रह वृत्ति में ही द दे जा सकते हैं । एक अपेक्षा से कहें, तो अहिंसा और अपरिग्रहवृत्ति, दोनों परस्पर पर्यायवाची शब्द हैं। युद्ध और अहिंसा: ० आत्म • रक्षा के लिए उचित प्रतिकार के साधन
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