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६१ : महावीर के सिद्धान्त
उनका आदर्श है कि धर्म-प्रचार के द्वारा ही विश्व भर के प्रत्येक मनुष्य के हृदय में यह जंचा दो कि वह 'स्व' में ही सन्तुष्ट रहे, 'पर' की ओर आकृष्ट होने का कभी भी प्रयत्न न करे। पर की ओर आकृष्ट होने का अर्थ है-दूसरों के सुख-साधनों को देख कर लालायित हो जाना और उन्हें छीनने का दुःसाहस करना।
० हाँ, तो जब तक नदी अपने दो पाटों के बीच में वहती रहती है, तब तक उससे संसार को लाभही-लाभ है, हानि कुछ भी नहीं। ज्योंही वह अपनी सीमा से हट कर आस - पास के प्रदेश पर अधिकार जमाती है, बाढ़ का रूप धारण कर लेती है, तो संसार में हाहाकार मच जाता है, प्रलय का दृश्य खड़ा हो जाता है। यही दशा मनुष्यों की है। जब तक सब - के - सब मनुष्य अपने - अपने 'स्व' में ही प्रवाहित रहते हैं, तब तक कुछ अशान्ति नहीं है, लड़ाई - झगड़ा नहीं है। अशान्ति और संघर्ष का वातावरण वहीं पैदा होता है, जहाँ कि मनुष्य 'स्व' से वाहर फैलना शुरू करता है, दूसरों के अधिकारों को कुचलता है और दूसरों के जीवनोपयोगी साधनों पर कब्जा जमाने लगता है।
० प्राचीन जैन-साहित्य उठा कर आप देख सकते हैं कि भगवान महावीर ने इस दिशा में बड़े स्तुत्य
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