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________________ ५६ : महावीर : सिद्धान्त और उपदेश अनन्त हैं । किस-किसकी इच्छा करोगे, किस-किसको" भोगोगे। पुदगलों का भोग अनन्त काल से होता मा रहा है, क्या कभी शान्ति मिली, सुख मिला? सुख तृष्णा के क्षय में है, सुख इच्छा के निरोध में है। सुखी होने के उक्त मार्ग को भगवान् ने अपनी वाणी में अपरिग्रह - महाव्रत तथा इच्छापरिमाण - अणुव्रत, इस प्रकार दो विकल्पों में प्रस्तुत किया। यह साधक की अपनी शक्ति पर निर्भर है, कि वह कौन-मा मार्ग ग्रहण करता है । आखरी सिद्धान्त तो यह है, कि परिग्रह का . परित्याग करो। धीरे - धीरे करो या एक साथ करो, पर करो अवश्य । परिग्रह : मूळभाव ० परिग्रह क्या है ? इसके विषय में भगवान ने अपने प्रवचनों में इस प्रकार कहा है "वस्तु अपने आप में परिग्रह नहीं है । यदि उसके प्रति मूछ भाव आता है, तो वह परिग्रह हो जाता है । __"जो व्यक्ति स्वयं अनावश्यक मर्यादाहीन संग्रह करता है, दूसरों से संग्रह कराता है, संग्रह करने वालों का अनुमोदन करता है-वह भव-बन्धनों से कभी मुक्त नहीं हो सकता।" "संसार के जीवों के लिए परिग्रह से बढ़कर अन्य कोई पाश (बन्धन) नहीं है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001422
Book TitleMahavira Siddhanta aur Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1986
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Discourse, N000, & N005
File Size6 MB
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