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४४ : महावीर : सिद्धान्त और उपदेश मात्र धर्म एवं भक्ति के नाम पर अर्थ-शून्य क्रिया-कांडों में ही उलक्षा रहता हो। प्राचीन आगम-साहित्य में उनके इस उदार व्यक्तित्व की जगह-जगह छाप लगी मालम होती है। अधिक विस्तार में न जा कर केवल एक संक्षिप्त-सा संवाद ही यहाँ लिख देते हैं, जो गणधर गौतम और भगवान महावीर के बीच हुआ था"भगवन् ! सेवा में एक प्रश्न है- दो व्यक्ति हैं, उनमें से एक हमेशा केवल आपकी ही भक्ति एवं उपासना में लगा रहता है, फलतः जन-सेवा के लिए कुछ भी समय नहीं निकाल पाता । दूसरा दिन-रात दीन-दुःखी पीड़ित जनता की सेवा में ही जुटा रहता है, उसको आपकी भक्ति-उपासना करने का अवकाश नहीं... ...!"
"भगवन् ! मैं पछता हूँ कि इन दोनों में कौन धन्य हैं, कौन अधिक श्रेय का अधिकारी है ?" ___ "गौतम ! वह, जो जन-सेवा का काम करता है ।" "भगवन् ! यह कैसे ? क्या आपकी भक्ति कुछ नहीं?" "गौतम ! मेरी भक्ति का अर्थ यह नहीं कि मेरा नाम रटा जाए, मेरी पूजा - अर्चना की जाए । वस्तुतः मेरी भक्ति, मेरी आज्ञा का पालन करने में है। और
मेरी आज्ञा है-प्राणि-मात्र को यथोचित सुख, सुविधा, - एवं शान्ति पहुँचाना।"
• भगवान महावीर का जन-सेवा के सम्बन्ध में
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