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३० : महावीर : सिद्धान्त और उपदेश
सकते हैं। जैसे भी होता है, महावीर अत्याचार के विरोध में तन कर खड़े होते हैं, उसका निर्द्वन्द्व भाव से प्रतीकार करते हैं। देश, धर्म या समाज की किसी भी परम्परा को पुरातनता के नाम पर उन्होंने कभी फल नहीं चढ़ाए। उनका निर्णय पुरातनता और नवीनता पर आधारित नहीं है, जो भी निर्णय है, वह सत्यता और उपयोगिता के आधार पर है।
भारत में बहुत पहले से दासप्रथा चली आ रही थी। महावीर के युग में उसने अत्यन्त उग्ररूप धारण कर लिया था। दासों का इतना भयंकर उत्पीड़न कि उस में मानवता का कुछ भो अंश नहीं रह गया था। दास केवल शरीर से ही आदमी थे, व्यवहार में उनको स्थिति पशुओं से भी गई गुजरी थी। दास और दासी खरीदे जाते थे, बेचे जाते थे, पति कहीं तो पत्नी कहीं, पुत्र कहीं तो पुत्री कहीं। दासियों का कोई चारित्र नहीं था, शील नहीं था । वे मालिकों की रखैल होती थीं। उनसे काम धधा कराने के साथ-साथ वासना-पूर्ति भी की जाती थी।
कौशाम्बी नरेश शतानीक ने 'चंपा' पर विजय प्राप्त की थी। विजय के उन्माद में अंग की समद्ध राजधानी चंपा को बुरी तरह लटा गया। धन-सम्पत्ति ही नहीं, स्त्री-पुरुष भी लूटे गए। उन्हें दास-दासी के
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