________________
२८ : महावीर : सिद्धान्त और उपदेश
करता हूं कि क्यों किसी साधक को सताया जाए ? मैं देख रहा हूं कि इन छह महीनों में आपको बहुत कष्ट रहा है । आप अच्छी तरह संयम की आराधना नहीं कर सके हैं । अतः प्रभो, अब आप आराम के साथ साधना कीजिए, मैं जा रहा हूं। दूसरे देवों को भी रोक दूँगा, आपको अब कोई कष्ट नहीं दे पाएगा ।"
भगनवान् की आँखें करुणा से छलछला आईं । "भगवान् यह क्या ! कोई कष्ट है ?"
"हाँ संगम, कष्ट है ! बहुत बड़ा कष्ट है !" " भगवन् क्या कष्ट है ? जरा बताइए तो सही, मैं उसे दूर करूँगा ।"
"संगम, क्या दूर करोगे ? वह तुम्हारे वश की
बात नहीं"
"फिर भी ?"
"संगम, तुम समझते होगे कि मैं अपने कष्ट की बात कह रहा हूं ! वत्स, यह बात नहीं है । मैं अपने कष्टों की कभी चिन्ता नहीं करता । छह महीने तो क्या, छह वर्ष भी कष्ट देते रहो, तब भी मेरा कुछ नहीं बिगड़ता । तुम्हारे दिए ये सब कष्ट तन तक ही रहे हैं, अन्दर में मन तक तो इसका एक अणभर अंश भी नहीं पहुंचा है। अपितु मैं तो इन कष्टों से अधिकाधिक संवरता हूं, बिगड़ता नहीं । हाँ, तो वह कष्ट और ही है"
Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org