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२६ : महावीर : सिद्धान्त और उपदेश
भले ही वह स्नेही हो अथवा द्वेषी- उनके हृदय में कल्याण की भावना कट-कट कर भरी हुई थी। विरोधी-से-विरोधी भी उनकी अपार क्षमा, अपार शान्ति एवं अपार प्रेम को देख कर सहसा गदगद हो जाता था। एक घटना के द्वारा यह बात बहुत स्पष्ट हो जाती है
स्वर्गलोक में एक दिन देव-सभा लगी हुई थी। देवराज इन्द्र, रत्नजटित सिंहासन पर अपनी पूरी छवि के साथ विराजमान थे। अप्सराएँ नाच रही थीं, वाद्यों की मधुर स्वर-लहरे गूंज रही थो, सभा नृत्य और गान में भान भूले हुए थी।
० देवराज इन्द्र शरीर से सिंहासन पर थे, परन्तु मन वहाँ न था। वह मर्त्यलोक में प्रभु महावीर के दर्शन कर रहा था। भगवान शून्य वन में प्रकृति के भीषण उपद्रवों में भी प्रशान्त महासागर के समान शान्त थे । इन्द्र प्रभु की अदभत तितिक्षा को देख कर सहसा चकित हो उठे__ "प्रभो ! कितना दिव्य धैर्य है ! कितना अदम्य साहस है ! ये प्रकृति के उपद्रव भला आपको कभी पराजित कर सकते हैं ? शक्तिशाली देव और दैत्य भी आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकते । आप तो वज्रप्रकृति के बने हैं। आप यथानाम तयागुण हैं। आप वस्तुतः सच्चे अर्थ में महावीर हैं।"
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