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महावीर की जीवन-रेखाएँ : २५
० सर्पराज का प्रस्तर हृदय आज दयालुदेव की दिव्य दया-दृष्टि से पिघल उठा । वह बार - बार प्रभु को देखता जाता है, रोता जाता है। अन्तर् की चिरसंचित पाप - कालिमा, आज मानो आँखों से आसुओं के रूप में झर-झर कर बाहर बह निकली।। ० भगवान ने सान्त्वना दी, दया का उपदेश दिया। नागराज ने आज से किसी भी प्राणी को कुछ भी पीड़ा न देने का प्रण लिया । ० भगवान चण्डकौशिक को प्रतिबोध देकर श्वेताम्बी की ओर चले गए। नागराज विष के स्थान में अमृत का पाठ पढ़ने लगा। लोग आश्चर्य में थे कि यह क्या हुआ ? आस - पास के उजड़े हुए तापसाश्रम फिर बस गए थे। जिस सर्प से एक दिन देश-का-देश भयत्रस्त था, जिसे मारने के लिए वह मंत्र - तंत्रों के अनेकानेक प्रयोग कर रहा था, आज वही उसकी पूजा के सामान जुटा रहा था । सर्पराज को घर-घर पूजा-हो रही थी! भगवान उसे विषधर सर्प की जगह सर्प से अमतधर देव जो बना चुके थे !
क्षमा की पराकाष्ठा ० भगवान महावीर शान्ति - साधना के सर्वमंगल शिखर पर पहुंच गए थे। समग्र विश्व के प्रति, फिर
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