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२४ : महावीर : सिद्धान्त और उपदेश
कर रहा हूं। कोई शीघ्रता नहीं, खब तसल्ली के साथ प्यास बुझा सकते हो, तृप्त हो सकते हो"
कौशिक महावीर की ओर एक टक देखता रहा !
"भद्र, किस असमंजस में हो ? मुझे दुख है कि तुमने व्यर्थ ही क्यों सैकड़ों मनुष्यों को सताया, कष्ट पहुँचाया, जीवन से हीन किया ? तुम्हें पता नहीं, इस दुष्कर्म का क्या परिणाम होमा ? पूर्वजन्म के पापों ने तुम्हें सर्प बनाया, अब के पाप तुम्हें क्या बनाएँगे ? जरा सोचो-समझो तो सही !" ० कौशिक टकटकी लगाए देखता-सुनता रहा।
"देवानुप्रिय, अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। संभल जाओ, क्षोभ की प्रकृति को छोड़ दो ! जीवन को सार्थकता दूसरों को कष्ट पहुंचाने में नहीं, सुख पहुँचाने में है। दुर्भाग्यवश यदि तुम किसी को सुख नहीं पहुंचा सकते, तो कमसे-कम तो दुःख तो न पहुंचाओ !" ० भगवान के सुधा-भरे शीतल वचनों से नागराज कुछकुछ होश में आया। विचार-सागर में डब गया। सहसा उसे पूर्व जन्म का भान हो आया । पूर्वपापों का दृश्य, चलचिन की तरह, उसकी आँखों के सामने झलकने लगा। हृदय विकल हो उठा। भगवान् के चरणों में वह मस्तक टेक देता है, अपने कृत अपराध की दीन भाव से क्षमा मांगने लगता है।
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