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२२ : महावीर : सिद्धान्त और उपदेश
हैं । क्यों, व्यर्थ ही अपना जीवन नष्ट करते हो ! अधिक हठ करना अच्छा नहीं होता !"
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"मैं हठ कहाँ कर रहा हूँ। मैं पथिक हूँ, अपने गन्तव्य पथ की ओर जा रहा हूँ
" आपको इधर जाना ही है, तो इस दूसरे मार्ग से जा सकते हैं ! सर्प के भय से लोग फेर खा कर भी इसी दूसरे मार्ग से बच कर जाते हैं !"
मैं किसी भी प्रकार के भय से इधर उधर मार्ग नहीं बदलता । मैं भयमुक्ति की साधना में संलग्न तपस्वी जीवन में सिंहवृत्ति का आदर्श लेकर घर से निकला हूँ ।"
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"चण्डकौशिक के आगे बेधारा सिंह क्या कर सकता है ? वह तो अपनी एक ही फुफकार में बलवान से बलवान प्राणी को भी सदा के लिए पृथ्वी पर सुला देता है ।"
'जहर का असर जहर पर ही तो होता है, अमृत पर तो नहीं ! संसारी जीव अन्दर में विकारों के विष से लबालव भरे होते हैं, अतः बाहर के जहर से भी कांपते हैं । परन्तु अमृतत्व के साधक पर चण्डकौशिक का क्षुद्र जहर क्या असर करेगा ? कभी आत्मा को आत्मा से भी भय हुआ है ? भय का दर्शन विजाति के सम्बन्ध में होता है, स्वजाति के सम्बन्ध में नहीं । चण्डकौशिक भी तो मेरी ही तरह एक आत्मा है । "
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