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महावीर की जीवन रेखाएं : १६ 'भगवन्, शान्ति कहां ? जीवन दूभर हो रहा है । भूख के कारण बिलखते परिवार का हाहाकार देखा नहीं जाता । और अधिक जोर से रोने लगता है ।
" तो भद्र, अब क्या है मेरे पास । जब दीक्षा लेते समय मैंने संपत्ति छोड़ी, जनता को अर्पित की, तब तू क्यों नहीं आया ?"
"भगवन् आता कहाँ ? मुझ अभागे को खबर भी मिली हो ? मैं तो तब दूर देशों में दाने - दाने के लिए भटक रहा था । अव घर आया तो खबर मिली कि यहाँ तो सोने का महामेघ बरस चुका ।"
"हाँ, तो भद्र, अब क्या हो सकता है ? अब तो में एक अकिंचन भिक्षु हूं।"
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"भगवन्, अब भी सब कुछ हो सकता है ! आज भी आपके पास सब कुछ है। आपके मुखारविन्द से शब्द निकलने की देर है, सोने का मेह बरस पड़ेगा ।"
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'भद्र, शान्त न हो ! भिक्षुत्व, शाप और अनुग्रह से परे की स्थिति है । क्या मैं यह साधना सोने का मेह बरसाने के लिए या जनता को चमत्कारों से विमुग्ध करने के लिए कर रहा हूँ ? सौम्य, मैं आत्म-सिद्धि का साधक हूँ, स्वर्ण सिद्धि का नहीं ।"
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"भगवन्, कुछ भी करें, मेरा उद्धार तो करना ही होगा। आपके द्वार से भी खाली हाथ जाऊँ, यह तो असंभव
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