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१८ : महावीर : सिद्धान्त और उपदेश
० एक दरिद्र ब्राह्मण भगवान् के पास आकर प्रार्थना करने लगा
"भगवन, मुझ दरिद्र ब्राह्मण पर भी कृपा कीजिए। मैं सब प्रकार से भाग्य-हीन हूं। और तो क्या, घर में खाने को एक जन का अन्न तक नहीं है। विपत्ति का मारा न जाने कहाँ - कहाँ भटका हूँ। यहाँ पर भी कितने भीषण जंगलों की खाक छानता हुआ श्रीचरणों में आया हं। दयालु ! दया करके मुझे भी कुछ अपनो करुणा का दान दीजिए।"
भगवान् मौन थे।
"भगवन् , दास पर दया करनी ही होगी! यह भूखा ब्राह्मण आपको छोड़कर अन्यत्र कहाँ जाए ? किससे मांगे ?
भगवान् फिर भी मौन थे।
"भगवन मौन क्यों हैं ? ऐसे कैसे काम चलेगा ? क्या कल्पवृक्ष के पास आ कर भी हताश हो कर जाना पड़ेगा ? नहीं, ऐमा हो नहीं सकता। मैं बिना कुछ लिए हर्गिज न जाऊँगा? या तो आज से सुख की जिन्दगी होगी, या फिर मृत्यु की गोद । दोनों में से एक का निर्णय आपकी 'हाँ' और 'ना' पर निर्भर है।"
भगवान् समौन मन्थन में थे। ब्राह्मण रोता हुआ भगवान् के चरणों से लिपट जाता है। 'भद्र, यह क्या करता है ? रो मत, शान्ति रख ।'
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