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महावीर की जीवन-रेखाएं : १७
अर्हन्त (पूर्ण पवित्र परमात्मा) हो सका है, न अब वर्तमान में हो सकता है और न भविष्य में हो सकेगा । सहायता लेने का अर्थ है-अपने आपको पराश्रित पंगू बना लेना, सुविधा का गुलाम बना लेना । सुख पूर्वक साधना, यह शब्द साहसहीन हृदय की उपज है। सुख और साधना का तो परस्पर शाश्वत वैर है, इन्द्र !" ० देवेन्द्र भक्ति - गद गद हृदय से प्रभु के चरणों में गिर जाता है, साथ रहने के लिए गिड़गिड़ाता है, शत-शत बार प्रार्थना करता है। परन्तु, महावीर हर बार दृढ़ता के साथ 'नकार' में उत्तर देते हैं। यह है भिक्षु जीवन का महान उदात्त आदर्श ! 'एगो चरे खग्गविसाणकप्पो।'
दरिद्र ब्राह्मण को वस्त्रदान
० भगवान् बड़े ही उदार - हृदय के महापुरुष थे। अपना और बेगाना, उन्होंने प्रारंभ से ही नहीं सीखा था। उनके हृदय में दुःखितों के प्रति अपार करुणा भरी हुई थी। प्राचीन काल से चले आ रहे महावीर-जीवन-चरित्रों में इस सम्बन्ध में भी एक मधुर प्रसंग है। ० एक समय की बात है- भगवान् निर्जन वन में ध्यान लगाए खड़े थे। परिग्रह के नाम पर भगवान् के पास कुछ भी संपत्ति न थी। एकमात्र दीक्षा के अवसर पर ग्रहण किया हुआ देवदूष्य चीवर ही शरीर पर पड़ा हुआ था ।
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