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१६ : महावीर : सिद्धान्त और उपदेश
"परन्तु यह अनुभव तुम्हारा अपना ही तो है न ? मेरा तो नहीं ? आत्मा और शरीर के द्वैत को मैंने भली-भांति जान लिया है, फलतः शरीर की किसी भी पीड़ा से मैं प्रभावित होऊँ, तो क्यों ?"
"भगवन, आप जैसे दिव्य ज्ञानी के समक्ष मैं क्या तर्क कर सकता हूं? मैं कुछ नहीं जानता । मैं तो सिर्फ यही एक बात जान पाया हूं कि मैं आपका तुच्छ सेवक हूं इसलिए सेवा में रहूंगा ही।"
"आखिर, इससे लाभ ?"
"भगवन, लाभ की क्या पूछते हैं ? इस लाभ की तो कोई सीमा ही नहीं। इस तुच्छ सेवक को आपकी सेवा का लाभ मिलेगा, पामर आत्मा पवित्र हो जाएगी।" ___“यह तो तुम अपने लाभ की बात कह रहे हो ! मैं अपने लाभ की पूछता हूँ ?" ___ "भगवन , सेवक को सेवा का लाभ मिले यह भी तो आपका ही लाभ है। क्या ही अच्छा हो, प्रभो कि कोई आपको व्यर्थ ही न सताए और आप सुख - पूर्वक साधना करते हुए कैवल्य प्राप्त कर सके ?"
"इन्द्र, तुम्हारी यह धारणा सर्वथा मिथ्या है।" "भगवन, कैसे ?
"साधक की अर्हन्त होने की साधना अपने स्वयं के बल पर ही सफल हो सकती है । 'स्ववीर्येणव गच्छन्ति जिनेन्द्रा: परमं पदम् ।' कोई भी साधक अतीत में आज तक किसी देव, इन्द्र अथवा चक्रवर्ती आदि की सहायता के बल पर न
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