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महावीर की जीवन - रेखाएँ : १५
टूटे, परन्तु आपने सहायता के लिए कभी भी किसी की ओर मुँह नहीं किया ।
स्वयं सहायता मांगना तो दूर, आपने तो सेवा-भाव के नाते सेवा करने वालों को भी अपने पास न रखा । जैनसाहित्य इस सम्बन्ध में, एक बड़ी ही उदात्त घटना का उल्लेख करता है ।
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एक बार की बात है कि देवराज इन्द्र प्रभु की सेवा में उपस्थित हुए । भगवान् ध्यान में थे, बड़ी नम्रता के साथ इन्द्र ने प्रार्थना की
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"भगवन्, आपको अबोध जनता बड़ी पीड़ा पहुंचाती है । वह नहीं जानती कि आप कौन हैं ? वह नहीं समझती कि आप इनके कल्याण के लिए ही यह सब कुछ कर रहे हैं । अतः भगवन्, आज से यह सेवक आपश्री के चरण-कमलों में रहेगा। आपको कभी कोई अबोध किसी प्रकार का कष्ट न दे, इसका निरन्तर ध्यान रखेगा।"
भगवान् ने कहा - " देवराज, यह क्या वह रहे हो ? भक्ति के मोह में सचाई को नहीं भुलाया जा सकता । अगर कोई कष्ट देता है तो दे, मेरा इसमें क्या बिगड़ता है ? मिट्टी के शरीर को हानि पहुंच सकती है, पर आत्मा तो सदा अच्छे और अभेद्य है । इसे कोई कैसे नष्ट कर सकता है ? भगवन्, आप ठीक कहते हैं । परन्तु शरीर और आत्मा कोई अलग चीज थोड़े ही हैं । आखिर शरीर की चोट, आत्मा को भी कुछ-न-कुछ पीड़ा पहुंचाती ही है, यह तो अनुभव सिद्ध बात है ।" इन्द्र ने प्रश्न को आगे बढ़ाया ।
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