________________
६ : महावीर : सिद्धान्त और उपदेश
इस विद्वान् ब्राह्मण का अपना एक गुरुकुल था, जिसमें अनेक राजाओं, सेनापतियों तथा राजपुरोहितों के पुत्र दूर - दूर से अध्ययनार्थ आते थे । उक्त गुरुकुल का छात्र एवं आचार्य का शिष्य होना, अपने में एक गौरव की बात थी ।
।
O
राजकुमार वर्धमान लगभग आठ वर्ष के ही होंगे, उन्होंने विचार चर्चा में आचार्य को हतप्रभ कर दिया । इतनी सहज प्रतिभा आचार्य ने अभी तक बालक में तो क्या किसी अन्य वयोवृद्ध विद्वान में भी नहीं देखी थी । अध्ययन से पृथक् कोई दिव्य प्रतिभाबुद्धि, किसी में जन्मजात भी होती है, यह पहली बार देखा राजगुरु ने अपनी विस्मय - विमुग्ध आँखों से । वह भक्ति-विभोर वाणी में कह उठा - "यह शिशु नहीं, साक्षात् सरस्वती है ! इसे कोई क्या ज्ञान देगा ? सूर्य को पथ दिखाने के लिए कहीं दीप जलाये जाते हैं ?"
2
o
एक वार ऐसा हुआ कि वर्धमान अपने बाल - साथियों के साथ नगर के बाहर एक वन में खेल रहे थे । खेल का रंग जम रहा था, बालक कहकहे लगाते खेल के मैदान में इवर - उधर दौड़ रहे थे ।
सहसा क्या देखा कि एक वृक्ष के नीचे अजगर जैसा एक महाकाय सर्प फुफकार रहा है। बच्चे तो भय से चीखतेचिल्लाते भागने लगे । सर्प ! और फिर इतना बड़ा ! भला कोई कैसे वहाँ खड़ा रह सकता था ?
Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org