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महावीर की जीवन-रेखाएं : ३ ।
० प्राचीन धर्म-संघ अस्त-व्यस्त दशा में जीवन को अन्तिम घड़ियाँ गिन रहे थे। उनका अपना पुराना आदर्श धमिल
हो चुका था, पुराना तेज ठंडा पड़ चुका था। वे निष्प्राण __ लोक-रूढ़ि के दलदल में पूरे फंसे हुए थे। धर्म के नाम पर
अपने अभिमत पथ के अनुसार एकमात्र परम्परागत क्रियाकाण्ड कर लेना ही अलम् समझा जाता था। आत्म-त्याग और आन्तरिक पवित्रता आदि, जो वास्तविक धर्म के अंग हैं, उनके लिए उस युग में कोई उचित स्थान न था । अधिक क्या, सुप्रसिद्ध मनीषी श्री राधवाचार्य के शब्दों में कहें तो "कट्टरतापूर्ण अज्ञान, मिथ्या-विश्वासों से पूर्ण क्रियाकलाप, तथा समाज के एक वर्ग के द्वारा दूसरे वर्ग का लंटा जानायही तीन उस युग की विशेषताएँ थीं।"
० भगवान पार्श्वनाथ का शासन अब भी चल रहा था। परन्तु, उसमें वह पहले जैसा तेज न रहा था। चारों ओर से पाखण्ड की जो आंधियां उठ रही थीं, वह उन्हें दृढ़ता के साथ रोक नहीं पा रहा था। बड़े-बड़े दिग्गज आचार्य अपना साहस खो बैठे थे और तत्कालीन महामुनि श्री केशीकुमार श्रमण के शब्दों में यह सोच रहे थे-"क्या किया जाए मुग्ध जनता अन्धकार में पथ-भ्रष्ट हो कर भटक रही है। कहीं प्रकाश नहीं मिलता। अब कोन महापुरुष अवतीर्ण होगा, जो भारत के क्षितिज पर सूर्य बन कर उदय होगा, और सब ओर प्रकाश-ही-प्रकाश चमका देगा।" ० संक्षेप में यों कहना चाहिए कि एक दिव्य लोकोत्तर महापुरुष के जन्म लेने का काल पक चुका था।
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