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२ : महावीर : सिद्धान्त और उपदेश
में, देवी-देवताओं को पूज लेना था, पशुबलि एवं नरबलि के नाम पर निरीह जीवों को तलवार के घाट उतार देना था, और था मंत्र-तंत्रों के बहकावे में खुल्लमखुल्ला मांसाहार, सुरापान और व्यभिचार का प्रचार । ० तत्कालीन सामाजिक संगठन जात-पांत के विषैले सिद्धान्त पर आश्रित था। अखण्ड मानव जाति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, महाशद्र, अस्पृश्य, और न जाने कितने अटपटे नामों वाले टुकड़ों में बँट-बँट कर छिन्न भिन्न हो गई थी और आपस में हो एक-दूसरे के रक्त की प्यासी बन गई थी। सामाजिक समता का तो उन दिनों स्वप्न भी नहीं लिया जाता था। शद्रता और अश्पृश्यता के नाम पर करोड़ों की संख्या में मानवदेहधारी बन्धु मानवता के मूल अधिकारों से वंचित कर दिये गए । वे पशुओं से भी गई - बीतो हालत में जीवन - यापन कर रहे थे। मनुष्य का मनुष्य के तौर पर सम्मान न करके, उस काल में उसे नफरत की निगाह से देखा जाता था। ० पूज्य मातृ-जाति की दशा भी दयनीय थी। वे गहस्वामिनी से गह-दासी बना दी गई थीं। उन्हें सब प्रकार से हेय, यहाँ तक कि पापाचार की मूर्ति समझा जाता था। 'न स्त्री स्वातंत्यमर्ह ति' का ही तुमुलघोष चहुं ओर गूंज रहा था। अस्तु, उनके हाथ से समस्त सामाजिक समानता के अधिकार छीन लिये गए थे। और तो और, उन्हें धर्मसाधना के भी कोई अधिकार न थे। उनके जात-कर्म आदि के संस्कार भी बिना मंत्रों के ही किये जाते थे, कहीं मंत्र ही अपवित्र न हो जाए इस भय से ।
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