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जग्म के पूर्व :
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यह ढाई हजार वर्ष पहले के भारत की बात है । वह समय, भारतीय संस्कृति के इतिहास में, एक महान् अन्धकारपूर्ण युग माना जाता है । तत्कालीन इतिहास - सामग्री को ज्यों ही कोई सहृदय पाठक उठा कर देखता है, तो सहसा चकित हो उठता है कि क्या भारतीय संस्कृति भी इतनी पतित, तिरस्कृत, विकृत एवं कलंकित रह चुकी है ।
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गृहस्थ जीवन
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जहाँ तक बौद्धिक स्थिति की बात है, वह युग एक बहुत विचित्र स्थिति में से गुजर रहा था । दार्शनिक विचारों का स्थान अन्ध-श्रद्धा ने ले लिया था । जनता अन्ध-विश्वास में, झूठे बहमों में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझे हुए थी । प्रायः धर्मगुरु, धर्माचार्य, महन्त तथा कुल-गुरु, पंडे और पुरोहित ही उस युग के विचारों के नियन्ता थे । अतः वे अपने मनोनुकूल जिधर चाहते उधर ही शास्त्रों के अर्थों को लुढ़का रहे थे, और धर्ममुग्ध जनता को उगलियों पर नचा रहे थे ।
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सदाचार की दृष्टि से भी वह युग जघन्यदशा को पहुँचा हुआ था । सदाचार का अर्थ, उस युग को परिभाषा
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