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महावीर के उपदेश : १३९
अपरिग्रह
संसार के सब जीवों को जकड़ने वाले परिग्रह से बढ़कर कोई दूसरा पाश अर्थात् जाल-बन्धन नहीं ।
जो ममत्व बुद्धि का परित्याग करता है, वही ममत्व को त्याग कर सकता है। वस्तुतः वही संसार-भीरु ( मोक्षमार्म का द्रष्टा) साधक है, जिसे किसी प्रकार का ममत्व नहीं है।
चावल, जौ, सोना और पशुओं सहित समूची पृथ्वी भी एक मनुष्य के सन्तोष के लिए पर्याप्त नहीं है। यह जान कर मनुष्य तप-संयम (सन्तोष) धारण करे।
जब व्यक्ति देव मनुष्य-सम्बन्धी समस्त भोगों से विरक्त हो जाता है, तो वह बाहर और अन्दर के सब परिग्रह को छोड़ कर अात्म-साधना में जुट जाता है।
वस्तुतः मूछों ही परिग्रह कहा जाता है।
मुनि जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरण आदि वस्तुएँ रखते हैं, वे सब एक-मात्र संयम-रक्षा के निमित्त हैं। उनके रखने में किसी प्रकार की परिग्रह-बुद्धि नहीं है।
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