________________ महावीर के उपदेश : 137 जो मनुष्य सुन्दर और प्रिय भोगों को प्राप्त करके भी उनकी ओर से पीठ फेर लेता है, सब प्रकार के स्वाधीन भोगों का परित्याग कर देता है, वही सच्चा त्यागी है / जो मनुष्य दुष्कर ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करता है, उसे देव, दानव, गन्धर्व यक्ष, राक्षस और किन्नर आदि सब नमस्कार करते हैं। : 10 : काम दुरतिक्रम हैं, अर्थात् कामनाओं की पूर्ति होना कठिन है। : 11 : कामभोग शन्य हैं, विष के समान भयंकर हैं, आशीविष सर्प के समान शीघ्र प्राणनाशक हैं / कामों की लालसा से अतृप्त दशा में ही प्राणी दुर्गति में जाते हैं। : 12 : अब्रह्मचर्य (मैथुन-सेवन) अधर्म का मूल महान् दोषों का स्त्रोत है। इसीलिए निर्गन्थ मैथुन-सेवन को वर्जित (निषेध) करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org