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महावीर के उपदेश : १२५
अहिंसा
जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं है, को ही अन्य सब जीवों को भी दु:ख प्रिय नहीं है, यह समझ कर जो न स्वयं हिंसा करता है और न दूसरों से हिंसा करवाता है, वही श्रमण है, भिक्षु है।
अहिंसा समस्त प्राणियों का क्षेम-कुशल करने वाली हैं।
किसी भी प्राणी की हिंसा न करना ही ज्ञानी होने का सार है । क्षहिंसा--सिद्धान्त ही सर्वश्रेष्ठ है, विज्ञान केवल इतना ही है।
छही काया के (समस्त) जीवों को अपने समान समझो।
वैर रखने वाला मनुष्य सदा वैर ही किया करता हैं । वह वैर में ही आनन्द मानता है । हिंसा-कर्म पाप को उत्पन्न करने वाले हैं, अन्त में दुःख पहुंचाने वाले हैं।
सब प्राणियों को सुख प्यारा लगता है, दुःख अप्रिय है। सब को अपना जीवन प्रिय है। अत: किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो।
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