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महावीर के सिद्धान्त : १०७
है । मोक्षाभिमुखी आत्म - चेतना ही वस्तुतः सम्यक्ज्ञान है।
(३) सम्यक - चारित्र- विश्वास और ज्ञान के अनुसार आचरण भी तो आवश्यक है। महावीर का धर्म चारित्र प्रधान धर्म है। वह केवल स्थूल भावनाओं और संकल्पों की ही सीमा में आबद्ध नहीं है, वह अन्तर्जगत को ज्योतिर्मय बनाने के लिए यथोचित आत्म-पुरुषार्थ के जागरण का धर्म है । अतएव सम्यकदर्शन और सम्यग्ज्ञान के अनुसार व्यवहार में निर्मलभाव से अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह आदि की साधना करना ही सम्यक-चारित्र है। और निश्चय में मोह और क्षोभ से, राग और द्वष से मुक्त शुद्ध वीतरागभाव ही सम्यक्-चारित्र है। निश्चय चारित्र मोक्ष का साक्षात् कारण है और व्यवहारचारित्र परंपरा कारण । क्रिया-काण्डरूप चारित्र शुद्ध निश्चय चारित्र के लिए केवल पृष्ठभूमिमात्र है। इस कारण वह देशकालानुसार परिवर्तित भी होता रहता है। अतः वह औपचारिक धर्म है, आत्मनिष्ठ शुद्ध मूलधर्म नहीं है। आत्मलीनता-रूप वीतरागता शुद्ध मूलधर्म है, वह देशकालानुसार न कभी परिवर्तित हुआ है और न होगा। भगवान महावीर इसी वीतरायता को सम्यक् - चारित्न कहते हैं।
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