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१०६ : महावीर : सिद्धान्त और उपदेश
(१) सम्यग्दर्शन-आत्मा है, वह चैतन्य तत्त्व है, जड़ पदार्थ नहीं। वह अजर - अमर - अविनाशी है, तीन काल में कभी नष्ट नहीं हो सकता। वह कर्मों से बँधा हुआ है और एक दिन अपनी ही सुप्त चेतना के जागृत होने पर बन्धन से मुक्त हो कर सदा के लिए शुद्ध, बुद्ध, निरंजन, निर्विकार परमात्मा भी हो सकता है। इस प्रकार के दृढ़ आत्म - विश्वास का नाम ही समय - दर्शन है । सम्यग्दर्शन के द्वारा आत्मा की हीनता के और दीनता के भाव क्षीण हो जाते हैं और अपनी ही आत्म - शक्ति के प्रचण्ड तेजोमय विश्वास के अचल-भाव जागृत होते हैं ।
(२) सम्यगज्ञान-चैतन्य और जड़ पदार्थों के भेद का ज्ञान करना, संसार और उसके राग-द्वषादि कारण तथा मोक्ष और उसके सम्यगदर्शनादि साधनों का भली - भांति चिन्तन - मनन करना, सम्यग्ज्ञान कहलाता है। सांसारिक दृष्टि से कोई कितना ही बड़ा विद्वान् क्यों न हो, यदि उसका ज्ञान मोह - माया के बन्धनों को ढीला नहीं करता है, विश्वकल्याण की भावना को प्रोत्साहित नहीं करता है, आध्यात्मिक जागृति में बल पैदा नहीं करता है, तो वह ज्ञान सम्यक् - ज्ञान नहीं कहला सकता। सम्यक् - ज्ञान के लिए आध्यात्मिक चेतना एवं पवित्र उद्देश्य की अपेक्षा
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